अहा, भेदज्ञाननी वार्ता ज्ञानीमुखेथी अपूर्व उल्लासभावे जे सांभळे छे तेने चैतन्यखजाना
निश्चितं सभवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
पण आपे अचिंत्य चैतन्यनिधान खूल्लां मुकी दीधा. अहा, आ चैतन्यनिधान पासे चक्रवर्तीना
निधानने पण तूच्छ जाणीने कोण न छोडे? रागने अने रागनां फळोने तूच्छ जाणीने धर्मी जीवो
अंतर्मुखपणे चैतन्यनिधानने साधे छे. सम्यग्दर्शनादि समस्त निर्मळभावनी आदिमां चैतन्यनुं ज
अवलंबन छे, मध्यमां पण चैतन्यनुं ज अवलंबन छे ने अंतमां पण चैतन्यनुं ज अवलंबन छे. परंतु
एम नथी के सम्यग्दर्शननी शरूआतमां रागनुं अवलंबन होय! सम्यग्दर्शन थया पछी मध्यमां पण
रागनुं अवलंबन नथी, ने पूर्णता माटे पण रागनुं अवलंबन नथी. आदि–मध्य के अंतमां क््यांय
निर्मळ परिणामने रागादि साथे कांई लागतुंवळगतुं नथी, तेनाथी भिन्नता ज छे. आ रीते
निर्मळपरिणामरूपे परिणमता ज्ञानीने विकार साथे जरापण कर्ताकर्मपणुं नथी.
रागादिना कर्तापणे नहि पण ज्ञातापणे ज परिणमे छे. ज्ञानपरिणाम तो अंतर्मुखस्वभावना आश्रये
थया छे ने रागपरिणाम तो बहिर्मुखवलणथी पुद्गलना आश्रये थया छे. आत्माना आश्रये थया तेने
ज आत्माना परिणाम कह्या, ने पुद्गलना आश्रये थया तेने पुद्गलना ज परिणाम कही दीधा. रागनी
उत्पत्ति आत्माना आश्रये थाय नहि, माटे राग ते आत्मानुं कार्य नथी. आवा आत्माने जाणतो थको
ज्ञानी पोताना निर्मळपरिणामने ज करे छे. एना परिणामनो प्रवाह चैतन्यस्वभाव तरफ वहे छे, राग
तरफ तेनो प्रवाह वहेतो नथी. निर्मळपरिणामरूपे परिणमेलो आत्मा रागमां तन्मयरूपे परिणमतो
नथी. ज्ञानीना परिणमनमां तो अध्यात्मरसनी रेलमछेल छे. चैतन्यना स्वच्छ महेलमां रागरूप मेल
केम आवे?
नहि. चैतन्यने अने रागने स्पष्ट भिन्न जाण्या वगर, कोने साधवुं ने कोने छोडवुं तेनो ज निर्णय
क््यांथी करशे? अने तेना निर्णय वगर साधकपणानो पुरुषार्थ उपडशे क््यांथी? भेदज्ञानवडे द्रढ
निर्णयना जोर वगर साधकपणानो चैतन्य तरफनो पुरुषार्थ उपडे ज नहि.