Atmadharma magazine - Ank 240a
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 22

background image
: ४ : आत्मधर्म: २४०A
भे द ज्ञा न नी वा र्ता

अहा, भेदज्ञाननी वार्ता ज्ञानीमुखेथी अपूर्व उल्लासभावे जे सांभळे छे तेने चैतन्यखजाना
खूली जाय छे. पद्मनंदीस्वामी कहे छे के–
तत्प्रतिप्रीतिचित्तेन येन वार्ताऽपि हि श्रुता।
निश्चितं सभवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम्।।
चैतन्यस्वरूप आत्मा प्रत्ये प्रीतिचित्तपूर्वक तेनी वार्ता पण जेणे सांभळी छे ते भव्य जीव
निश्चयथी भाविनिर्वाणनुं भोजन छे.
वळी आदिनाथभगवाननी स्तुतिमां तेओ कहे छे के हे भगवान! आपे केवळज्ञान प्रगट करीने
आपनां तो चैतन्यनिधान खोल्यां, ने दिव्यध्वनि वडे चैतन्यस्वभाव दर्शावीने जगतना जीवोने माटे
पण आपे अचिंत्य चैतन्यनिधान खूल्लां मुकी दीधा. अहा, आ चैतन्यनिधान पासे चक्रवर्तीना
निधानने पण तूच्छ जाणीने कोण न छोडे? रागने अने रागनां फळोने तूच्छ जाणीने धर्मी जीवो
अंतर्मुखपणे चैतन्यनिधानने साधे छे. सम्यग्दर्शनादि समस्त निर्मळभावनी आदिमां चैतन्यनुं ज
अवलंबन छे, मध्यमां पण चैतन्यनुं ज अवलंबन छे ने अंतमां पण चैतन्यनुं ज अवलंबन छे. परंतु
एम नथी के सम्यग्दर्शननी शरूआतमां रागनुं अवलंबन होय! सम्यग्दर्शन थया पछी मध्यमां पण
रागनुं अवलंबन नथी, ने पूर्णता माटे पण रागनुं अवलंबन नथी. आदि–मध्य के अंतमां क््यांय
निर्मळ परिणामने रागादि साथे कांई लागतुंवळगतुं नथी, तेनाथी भिन्नता ज छे. आ रीते
निर्मळपरिणामरूपे परिणमता ज्ञानीने विकार साथे जरापण कर्ताकर्मपणुं नथी.
एक ज काळे वर्तता ज्ञान अने राग, तेमां ज्ञान तो अंर्तस्थित छे ने राग तो बाह्यस्थित छे;
ज्ञानी अंतरस्थित एवा पोताना निर्मळपरिणामना कर्तापणे ज परिणमे छे, ने बाह्यस्थित एवा
रागादिना कर्तापणे नहि पण ज्ञातापणे ज परिणमे छे. ज्ञानपरिणाम तो अंतर्मुखस्वभावना आश्रये
थया छे ने रागपरिणाम तो बहिर्मुखवलणथी पुद्गलना आश्रये थया छे. आत्माना आश्रये थया तेने
ज आत्माना परिणाम कह्या, ने पुद्गलना आश्रये थया तेने पुद्गलना ज परिणाम कही दीधा. रागनी
उत्पत्ति आत्माना आश्रये थाय नहि, माटे राग ते आत्मानुं कार्य नथी. आवा आत्माने जाणतो थको
ज्ञानी पोताना निर्मळपरिणामने ज करे छे. एना परिणामनो प्रवाह चैतन्यस्वभाव तरफ वहे छे, राग
तरफ तेनो प्रवाह वहेतो नथी. निर्मळपरिणामरूपे परिणमेलो आत्मा रागमां तन्मयरूपे परिणमतो
नथी. ज्ञानीना परिणमनमां तो अध्यात्मरसनी रेलमछेल छे. चैतन्यना स्वच्छ महेलमां रागरूप मेल
केम आवे?
भेदज्ञानवडे झाटकी झाटकीने रागने चैतन्यथी अत्यंत भिन्न करी नाख्यो छे. केवो भिन्न? के
जेवा परद्रव्यो भिन्न छे तेवो ज राग पण चैतन्यथी भिन्न छे. आवा भेदज्ञान वगर साधकपणुं थाय ज
नहि. चैतन्यने अने रागने स्पष्ट भिन्न जाण्या वगर, कोने साधवुं ने कोने छोडवुं तेनो ज निर्णय
क््यांथी करशे? अने तेना निर्णय वगर साधकपणानो पुरुषार्थ उपडशे क््यांथी? भेदज्ञानवडे द्रढ
निर्णयना जोर वगर साधकपणानो चैतन्य तरफनो पुरुषार्थ उपडे ज नहि.