
निजानंदन मस्त बनो. चैतन्यना निजानंदमां मस्त धर्मात्मा संतो जगतनी कोई प्रतिकूळताथी डगता
पण घेलां न जाणशो रे...
ए प्रभुने त्यां पहेलां छे;
जगतडां कहे छे के भगतडां कालां छे,
पण कालां न जाणशो रे...
ए आत्माने वहाला छे.
और कछु न सुहावे, जब निज आतम अनुभव आवे... जब० १.
जिन आज्ञा अनुसार प्रथमही, तत्त्व प्रतीति अनावे;
वरणादिक रागादिक तैं निज, चिह्न भिन्न कर ध्यावे... जब० २.
मतिज्ञान फरसादि विषय तजि, आतम सन्मुख ध्यावे;
नय प्रमाण निक्षेप सकल श्रुत, ज्ञान विकल्प नशावे... जब० ३.
चिद्ऽहं शुद्धोऽहं ईत्यादिक, आप माहिं बुधि आवे;
तनपैं वज्रपात गिरतेहू नेक न चित्त डुलावे... जब० ४.
स्व संवेद आनंद बढै अति वचन कह्यो नहिं जावे;
देखन जानन चरन तीन बिच, एक स्वरूप लहरावे... जब० प.
चित्त करता चित्त कर्म भाव चित्त, परिणति क्रिया कहावे;
साध्य साधक ध्यान ध्येयादिक, भेद कछु न दिखावे... जब० ६.
आत्मप्रदेश अद्रष्ट तदपि, रसस्वाद प्रगट दरसावे;
जयों मिसरी दीसत न अंधको, सपरस मिष्ट चखावे... जब० ७.
जिन जीवनीके संसृति, पारावार पार निकटावे;
भागचन्द ते सार अमोलक परम रतन वर पावे... जब० ८.