Atmadharma magazine - Ank 240a
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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आसो: २४८९ : ७ :
निजानंदन मस्त बनो. चैतन्यना निजानंदमां मस्त धर्मात्मा संतो जगतनी कोई प्रतिकूळताथी डगता
नथी, अन्य सर्व रस छोडीने निजानंदतत्त्वने साधवामां ज ते मस्त छे. –
जगतडां कहे छे के भगतडां घेलां छे,
पण घेलां न जाणशो रे...
ए प्रभुने त्यां पहेलां छे;
जगतडां कहे छे के भगतडां कालां छे,
पण कालां न जाणशो रे...
ए आत्माने वहाला छे.
अहा, धर्मात्मा भक्तो कालीघेली भक्ति करे त्यां अज्ञानीओ कहे छे के ए कालाघेला छे. पण
अंदरमां ए धर्मात्माने चैतन्यनो रंग लाग्यो छे तेनी अज्ञानीने खबर नथी. ज्ञानीना अंतरंगभावने
अज्ञानीओ ओळखी शकता नथी. चैतन्यरंगमां जगतने भूलीने आत्माने साधवा नीकळ्‌या ते धर्मात्मा
परमात्माना मार्गमां पहेला छे; जगतना मूढजीवो भले तेने घेलां कहे पण प्रभुना दरबारमां तो ते
पहेलां छे, ते आत्माने वहाला छे, धर्मात्मासंतोने वहाला छे.
(स. गा. ३८ ना प्रवचनमांथी)
ज्यारे आत्मानो अनुभव थाय त्यारे...
[जीवने ज्यारे आत्मानो अनुभव थाय त्यारे ते महाभाग साघक
संतनी परिणति केवी थाय? तेनो वैराग्य, तेनो आनंद, तेनी द्रढता, तेनी
भवअंतनी निकटता–वगेरेनुं वर्णन आ काव्यमां करवामां आव्युं छे.......)
आतम अनुभव आवे, जब निज आतम अनुभव आवे;
और कछु न सुहावे, जब निज आतम अनुभव आवे... जब० १.
जिन आज्ञा अनुसार प्रथमही, तत्त्व प्रतीति अनावे;
वरणादिक रागादिक तैं निज, चिह्न भिन्न कर ध्यावे... जब० २.
मतिज्ञान फरसादि विषय तजि, आतम सन्मुख ध्यावे;
नय प्रमाण निक्षेप सकल श्रुत, ज्ञान विकल्प नशावे... जब० ३.
चिद्ऽहं शुद्धोऽहं ईत्यादिक, आप माहिं बुधि आवे;
तनपैं वज्रपात गिरतेहू नेक न चित्त डुलावे... जब० ४.
स्व संवेद आनंद बढै अति वचन कह्यो नहिं जावे;
देखन जानन चरन तीन बिच, एक स्वरूप लहरावे... जब० प.
चित्त करता चित्त कर्म भाव चित्त, परिणति क्रिया कहावे;
साध्य साधक ध्यान ध्येयादिक, भेद कछु न दिखावे... जब० ६.
आत्मप्रदेश अद्रष्ट तदपि, रसस्वाद प्रगट दरसावे;
जयों मिसरी दीसत न अंधको, सपरस मिष्ट चखावे... जब० ७.
जिन जीवनीके संसृति, पारावार पार निकटावे;
भागचन्द ते सार अमोलक परम रतन वर पावे... जब० ८.
(धन्य ए अनुभव दशा!)