: ६ : आत्मधर्म: २४०A
अरे जीव! आवो स्वभाव सांभळीने एकवार तो उल्लासथी ऊछळ! एकवार कुतूहल करीते
अंतरमां आ चीजने जो तो खरो! सर्वज्ञो अने संतो जेनो आटलो बधो महिमा करे छे ते चीज
अंदरमां केवी छे? तेने प्रगटपणे देख. ज्ञानप्रकाश ज्यां धर्मात्माने प्रगट्यो त्यां ते निःशंकपणे कहे छे के
अमने महान ज्ञानप्रकाश प्रगट्यो छे, हवे अमने फरीने मोह थवानो नथी. कोईने पूछवुं पडतुं नथी,
पोताने ज निःशंक पोतानी खबर पडे छे.
जेने आत्मानो अनुभव थयो छे ते धर्मात्मा संतबीजाने प्रमोदथी कहे छे के अहो जीवो! आ
चैतन्यआत्मा शांतरसनो दरियो छे. शांतरसनो दरियो उल्लसी रह्यो छे. ए चैतन्यना शांतरसमां तमे
निमग्न थाओ. विभ्रमरूपी चादरने दूर करीने आ शांतरसना समुद्रने देखो. पोताने जे अनुभव थयो
तेवा अनुभवनी प्रेरणा आपे छे के जगतना बधाय जीवो आवा आत्माने अनुभवो. “आ भगवान
ज्ञानसमुद्र विभ्रम दूर करीने सर्वांग प्रगट थयो छे.. विभ्रम ते तेनुं अंग न हतुं, तेने दूर कर्युं, अने
स्वानुभवमां सर्वांग प्रगट थयो; शुद्धतानुं स्वसंवेदन थतां आखोय भगवान आत्मा प्रसिद्धिमां आवी
गयो. अहा, शांति रसमां झुलता संतो तेनो आ मार्ग जगतने चींधी रह्या छे के अरे जीवो! तमे आ
मार्गे आवो, सागमटे नोतरुं आपे छे के अमे भ्रमना पडदा दूरकरीने आ भगवान ज्ञानसमुद्रने प्रगट
कर्यो छे तेने जगतना बधाय जीवो देखो. जेम नाटकमां पडदो दूर थतां दश्य प्रगट थाय त्यां बधाय
जोनार एकसाथे तेमां निमग्न थाय छे. तेम अहीं भ्रमरूपी पडदो दूर करीने भिन्न चैतन्यतत्त्वने प्रगट
बताव्युं. तेने जोवामां बधाय जीवो अत्यंत निमग्न थाओ... शांतरसथी भरेलो चैतन्यसमुद्र तमारा
अंतरमां ज ऊछळी रह्यो छे.
‘ऐष’ आ भगवान आत्मा–एम स्वानुभव प्रत्यक्ष करीने आचार्यदेव तेनी प्रेरणा करे छे. जेम
हाथमां लईने कोई वस्तु साक्षात् बतावे, तेम चैतन्यतत्त्वने स्वानुभवमां लईने आचार्यदेवे स्पष्ट
बताव्युं छे के जुओ! आ चैतन्यसमुद्र भगवान आत्मा शांतरसथी भरपूर छे. तरणां ओथे आखो
डुंगर छे, ते तरणांने दूर करतां आखो शांतरसनो पिंड चैतन्य डुंगर देखाय छे.
महान चैतन्य सरोवरमां विवेकी–सम्यग्द्रष्टि हंसला आनंदरूप मोतीना चारा चरे छे. रागना
चारा ते चरता नथी.
स्वानुभवना उत्कृष्टरसथी–उत्कृष्ट महिमाथी संतो कहे छे के एकसाथे अने सर्व लोक आवा शांत
चैतन्यरसमां मग्न थईने तेनो अनुभव करो. अंतर्मुख–स्वभाव सिवाय बहारमां बीजुं कोई आलंबन
छे ज नहीं. आमां खरेखर पोताना स्वानुभवनी प्रसिद्धि छे. आवो स्वानुभव प्रगट करवो ते ज धर्म छे.
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा बीजाने पण सम्यग्द्रष्टि बनावे छे.
जुओ, आ आत्मख्यातिना खेल! चैतन्यना शांतरसनुं नृत्य! सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा चैतन्यना
आवा नाटकने स्वानुभवथी जोनारा छे, अने बीजा सुपात्र मिथ्याद्रष्टि जीवोने पण जीव–अजीवनी
भिन्नता देखाडीने, भेदज्ञान करावीने, भिन्न चैतन्यनो अनुभव करावे छे. आ रीते चैतन्यने जोनारा
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा बीजाने सम्यग्द्रष्टि बनावे छे. वाह, जुओ तो खरा! शैली केवी छे! सम्यग्द्रष्टि
बीजाने पण सम्यग्द्रष्टि बनावे छे. बीजो जीव पण एवो ज छे के जे जरूर यथार्थ समजीने सम्यग्द्रष्टि
थई जाय छे. तेथी एम कह्युं के सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा बीजा जोनाराने (एटले के चैतन्यने जोवानी खरी
जिज्ञासा थई छे तेने) यथार्थ स्वरूप बतावी, भ्रम मटाडी, शांत रसमां लीन करी सम्यग्द्रष्टि बनावे छे.
अरे जीवो! आ चैतन्यतत्त्वने तमे देखो, अंदरमां कुतूहल करीने लगनी लगाडीने आ
आत्मतत्त्वने अनुभवो, मरीने पण एटले मरणपर्यंतनी गमे तेटली प्रतिकूळता जगतमां आवे तोपण
तेनी दरकार छोडीने आ चिंदानंद तत्त्वने देखो अने तेना