मागशर–पोषः २४९०ः ७ः
छे, तेनुं ज्ञान पण बधुंय विपरीत छे, तेनुं चारित्र पण एकलुं रागरूप होवाथी संसारनुं
ज कारण छे. संसारने माटे तेनुं बधुंय सफळ छे, धर्मने माटे निष्फळ छे. उपयोगनी
खाण तो चैतन्यधाम छे, ते चैतन्यधाम तरफ वळ्या वगर उपयोगमां सत्यपणुं थाय
नहीं, ने दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां सम्यक्पणुं आवे नहि.
बहारथी मारो उपयोग आवे–एम माननारो जीव अज्ञानभावे पोते ज
पोताना उपयोगने हणी रह्यो छे. मारा उपयोगने कोइ आवीने हणी जशे, जगतनी
तीव्र प्रतिकूळता आवशे तो मारो उपयोग हणाइ जशे एवो जेने संदेह छे तेनो उपयोग
चैतन्यधाम तरफ वळेलो ज नथी.
मारो आत्मा ज उपयोगस्वरूप छे–एवा भानपूर्वक चैतन्यधामना आश्रये
अंदरथी ज्यां निर्मळ उपयोग प्रगटयो त्यां ज्ञानी धर्मात्मा निःशंक छे के अमारो आ
उपयोग कयांय बहारथी नथी आव्यो. अंदरथी आवेला अमारा आ निर्मळ उपयोगने
जगतनी गमे तेवी प्रतिकूळता पण हणी शके नहीं....ए तो अप्रतिहतपणे वृद्धिगत थता
थता केवळज्ञान लीधेज छूटको.
गृहस्थाश्रममां योगी
एने ओळखे ते वैरागी
“योग जाणीने तो आखुं जगत भक्ति करे छे पण गृहस्थाश्रममां
योगदशा छे, ते जाणीने भक्ति करवी ए वैराग्यनुं कारण छे. गृहस्थाश्रममां
सत्पुरुष रहे छे तेनो चित्रपट जोइ विशेष वैराग्यनी प्रतीति थाय छे.
योगदशानो चित्रपट जोइ आखा जगतने वैराग्यनी प्रतीति थाय
पण गृहस्थाश्रममां रहेतां त्याग–वैराग्य योगदशा जेवा रहे छे–ए केवी
अद्भुत दशा छे! योगमां जे वैराग्य रहे तेवो अखंड वैराग्य सत्पुरुष
गृहस्थाश्रममां राखे छे. ते अद्भुत वैराग्य जोइ मुमुक्षुने वैराग्य भक्ति
थवानुं निमित्त बने छे. लौकिकद्रष्टिमां वैराग्य, भक्ति नथी.”
(गृहस्थाश्रममांय ज्ञानीना अद्भुत वैराग्यनुं दर्शन करावनारा आ
वचनामृत कोनां हशे, ए तो जिज्ञासुओ सहेलाइथी ओळखी जशे.)