Atmadharma magazine - Ank 246
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. चैत्र : आत्मधर्म : ७ :
पंच परमेष्ठीना स्मरणथी विघ्न टळे छे
श्री पंच परमेष्ठीने ओळखीने तेना स्मरण–वंदनादिथी विघ्न टळे छे–एम
कह्युं छे, त्यां विघ्न एटले बहारना संयोग न समजवा, पण आत्मामां ते वखते
तीव्र कषाय टळी जाय छे, तीव्र कषाय ते ज विघ्न छे, ते विघ्ननो पंच परमेष्ठीना
स्मरणथी नाश थाय छे. पंच परमेष्ठीनुं ध्यान करवा छतां बहारमां सिंह खाई जता
होय एवो संयोग पण होय. परंतु ए संयोग ते कांई विघ्न नथी. पण ते वखते पंच
परमेष्ठीना स्मरणथी ते संयोगनुं लक्ष छूटी जाय छे, अने पापभाव टळी जाय छे, ते
ज विघ्न टळी गया छे, बहारनो संयोग रहे के टळे तेनी साथे कांई संबंध नथी.
चैतन्यनी पर्यायमां विकार थाय तेने जाणे अने ते विकाररहित चैतन्य
स्वभावने जाणे त्यारे भेदज्ञान थाय छे, देहादि जडनी क्रियाथी जुदो अने मिथ्यात्व
वगेरे विकारथी रहित एवा चैतन्य स्वभावनी प्रतीत अने ज्ञान करवां ते ज
मोक्षनो प्रथम उपाय छे.
दर्शन–ज्ञानस्वभावनी ओळखाण थया पछी विशेष अभ्यास वडे स्वभावनी
स्थिरता करे छे त्यारे संत–मुनिदशा प्रगटे छे, ते दशामां वस्त्रादि परिग्रहनो राग
होतो नथी तेथी त्यां वस्त्रादि कांई होतुं नथी, सहजपणे वस्त्रादि छूटी जाय छे; त्यां
जे वस्त्रादि छूटी जाय छे ते तो जडनी क्रिया छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी. आत्मा तो
स्वरूप स्थिरतारूप क्रियानो ज कर्ता छे अने ते ज साची मुनिदशा छे. धन्य ते
मुनिदशा! जेओ रात्रि अने दिवस निरंतर स्वरूपना परम अमृतमय निराकूळ
स्वादने अनुभवी रह्या छे, एक समयना पण प्रमाद वगर केवळज्ञानस्वरूपने साधी
रह्या छे, जेमने स्वरूप–साधन करतां कदी पण थाक लागतो नथी–एवा परम पुरुष
श्री संत मुनिश्वर भगवंतोना चरणकमळमां नमस्कार हो! ए परम दशा वगर
मुनिदशा होय नहि. मुनिदशा पण परमेष्ठीपद छे, ने तेना स्मरणवडे पण
आत्मामांथी विघ्नकारी एवा अशुभभावो दूर थाय छे. एनी ओळखाण अने
भावनावड मंगळभावो प्रगटे छे.