: ८ : आत्मधर्म : प्र. चैत्र:
उ.... द्.... बो.... ध.... न
“हे आत्मा हवे बस!!! नर्कना अनंत दुःखो जे सांभळतां पण हृदयमां कंपारी
ऊठे, एवा दुःखो अनंत–अनंत वार ते सहन कर्यां. पण तारुं साचुं भान एक क्षण पण
अनंतकाळमां कर्युं नथी; आ उत्तम मनुष्यजीवनमां अनंत काळनां अनंतदुःखो
टाळवानो वखत आव्यो छे अने अत्यारे जो तुं तने (तारा स्वरूपने, जाणवानो साचो
उपाय नहि कर तो फरी अनंतकाळ चोराशीमां भ्रमण करवुं पडशे... माटे जागृत था!
आत्माने ओळख्या वगर छूटको नथी. वस्तुना भान वगर जईश क्यां? तारुं
सुख–शांति ते तारी वस्तुमांथी आवे छे के बहारथी? तुं गमे ते क्षेत्रे जा पण तुं तो
तारामां ज रहेवानो! तारुं सुख स्वर्गमांथी नथी आववानुं, तुं ताराथी कोई काळे के
कोई क्षेत्रे जुदो पडवानो नथी. मात्र तारा भानना अभावे ज तुं दुःखी थई रह्यो छो.
ते दुःख दूर करवा माटे त्रणे काळना ज्ञानीओ एक ज उपाय बतावे छे के:–
“आत्माने ओळखो”
हे जीवो! तमे जागो, मनुष्यत्व अत्यंत दुर्लभ छे; अज्ञानमां रहीने सद्दविवेक
पामवो अशक्य छे. आखो लोक (संसार) केवळ दुःखथी सळग्या करे छे, अने पोत–
पोताना कर्मो वडे अहीं तहीं भम्या करे छे, एवा संसारथी मुक्त थवां हे जीवो! तमे
सत्वर आत्मभान सहित जागो! जागो!
हे जीव! हे आत्मा! हवे क्यां सुधी खोटी मान्यता राखवी छे? खोटी
मान्यतामां रहीने अनादिथी अज्ञाननी मोहजाळमां मुंझाई रह्यो छो, हवे तो जाग!
एकवार तो खोटी मान्यताथी छूटीने, अज्ञाननी मोहजाळने फगावीने तारा मूळ
स्वरूपने जो!
साचुं सुख केम प्रगटे? साचुं सुख आत्मामां ज छे, बहार क्यांय साचुं सुख
नथी ज. आत्मा पोते सुख स्वरूप छे. ज्यारे सम्यग्दर्शन द्वारा पोताना स्वरूपने
बराबर जाणे त्यारे ज साचुं सुख प्राप्त थाय. ते माटे प्रथममां प्रथम सत्पुरुषने चरणे
अर्पाई जवुं जोईए अने रुचिपूर्वक निरंतर सत्नुं श्रवण–मनन करवुं जोईए.
दुःखथी छूटीने सुख मेळववानो उपाय दरेक आत्मा करे छे, पण पोताना सत्य–
स्वरूपना भान वगर, साचो उपाय करवाने बदले खोटो उपाय करी करीने अनादिथी
अज्ञानने लीधे दुःखने ज भोगवे छे. ते दुःखथी छूटवा माटे त्रणेकाळना ज्ञानीओ एक
ज उपाय बतावे छे के आत्माने ओळखो.