: प्र. चैत्र : आत्मधर्म : ९ :
वै... रा... ग्य... वा... णी
वैराग्यना कोई प्रसंगे पू. गुरुदेव वगेरेना वैराग्यप्रेरक वचनोमांथी अहीं
जिज्ञासुओने उपयोगी केटलुंक संकलन आप्युं छे. गमे ते प्रसंगे
शांतरसनुं पान करावीने आत्माने हिंमत आपनारी
धर्मात्मा–सन्तोनुं दर्शन
कोईपण परिस्थितिमां मुमुक्षु जीवने
उत्साहित करे छे... धर्मात्माने देखतां ज
एनां देहदुःख ने जीवनदुःख बधुंय
एकवार तो भूलाई जाय छे. मोटा मोटा
दाक्तरोनी दवा जे दर्दने नथी दबावी
शकती, ते दर्द धर्मात्माना एकज वचनथी
भूलाई जाय छे. एक कविए गझलमां
साचुं ज कह्युं छे के–
जगतमां जन्मवुं मरवुं
नथी ए दरदनो आरो;
तथापि शांतिदाता बे
हकीमो संत ने तीर्थो.
सदा संसारनो दरियो
तूफानी फेनी अंधारो;
दीवादांडी समा बे त्यां
अडग छे संत ने तीर्थो.
महाभाग्ये आपणने आजे एवा
अडग दांडीदीवा समा सन्तधर्मात्मानां दर्शन–
वचननो लाभ प्राप्त थाय छे... तेओनी
उत्साहप्रेरक वैराग्य वाणी बधा जीवोने माटे
खूब उपकारी छे.
रोग थाय, कळतर थाय–ए शरीरनी
अवस्था छे, एनुं लक्ष भूली जवुं; आत्माना
ज्ञानआनंदना विचारमां चडी जवुं. नरकमां
३३–३३ सागरोपम सुधी घोर वेदना जीवे
सहन करी छे. शरीरनो स्वभाव फरशे नहि,
माटे आपणे समता राखवी. “हुं तो
चैतन्यस्वरूप ज्ञान छुं” ––एम फडाक दईने
परथी भिन्न चैतन्यमां द्रष्टि वाळी लेवी. पछी
शरीरनुं थवानुं होय ते थाय. ‘शरीरमां नवी
नवी व्याधि थया करे छे’ ––पण भाई!
ऊंटना तो अढारेय वांका! ... आ शरीरना
परमाणु स्वयं कर्ता थईने एवी दशारूपे
परिणमी रह्या छे. मृत्यु तो एकवार थवानुं
छे... एमां ज्ञानस्वरूपनी द्रष्टि वगर कल्याण
नथी. चैतन्यशक्तिना गर्भमां परमात्मा
बिराजे छे––तेनुं स्मरण करवुं.