
शुं कार्य करवुं रही गयुं क्षण क्षण अरेरे आत्मनुं?
कया दोष छोडया आत्मथी कया गुणनी प्राप्ति करी?
कई भावी ऊज्वळ भावना सम्यक्त्व आदिक भावनी?
कई कई क्षणे चिंतन कर्युं निज आत्मना शुद्ध गुणनुं?
कई कई रीते सेवन कर्युं में देव–गुरु–धर्मनुं?
रे? जीवन मोंघुं जाय मारुं शीध्र साधुं धर्मने,
फरी फरी छे दुर्लभ अरे! आ पामवो नरदेहने.
सम्यक्त्व साधुं, ज्ञान साधुं, चरण साधुं आत्मामां,
ए रत्नत्रयना भावथी करुं सफळता आ जीवनमां.
परमाद छोडीने हवे हुं भावुं छुं निज आत्मने,
निज आत्मना भावन वडे करुं नाश आ भवचक्रने.