श्री कानजीस्वामी–हीरकजयंती–अभिनंदन–अंक
वैशाख सुद २ः ७३ः
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ज्यां ज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव थयो त्यां ज्ञानी थयेलो आत्मा परभावना
कार्यने करतो नथी. ज्ञानीना कार्यने अने रागादिपरभावोने भिन्नभिन्नपणुं छे.
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मारो आत्मा ज ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे–एवो निर्णय करवानी जेने धून
लागी तेना प्रयत्ननो झूकाव स्वसन्मुख वळ्या करे छे; राग तरफ तेनो झूकाव रहेतो
नथी; रागथी पाछा खसीने तेनी परिणति अंतरमां वळे छे.
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ज्ञानना अचिंत्य महिमानुं चिंतन संसारना सर्व कलेशने भूलावी दे छे. चित्तनी
अत्यंत निश्चलता वडे ज ज्ञानस्वभाव सधाय छे. चित्तनी निश्चलता वगर स्वानुभव
थाय नहि.
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आत्मामां अतीन्द्रियआनंद अने अतीन्द्रियज्ञान छे ते ज उपादेय छे–एवा
निर्णयमां सम्यक्त्व थाय छे. के वळी भगवानना ज्ञान ने आनंदनो निर्णय करनारने
पोतामां स्वसन्मुखताथी तेनो नमूनो आवी जाय छे.
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पूर्ण साध्यने ओळखीने, ते साध्यना स्वीकारपूर्वक साधकभाव वर्ती रह्यो छे.
पूर्ण साध्यने स्वीकारनार ज्ञाने रागादि बाधकभावोने पोताथी जुदां जाण्या...ते ज्ञान
रागादि परभावथी जुदुं पडीने स्वभाव तरफ परिणमतुं साधक थयुं, आनंदरूप थयुं.
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सम्यग्द्रष्टिनुं ध्येय निजात्मा छे, केमके तेमां आनंद छे. स्वध्येये जे अतीन्द्रिय
आनंद प्रगटयो ते ज खरो आनंद छे. बाह्य विषयोमां कयांय ते आनंद छे ज नहि.
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आनंद आत्मामां भर्यो छे; तेथी जे परिणाममां ते स्वभावनो आश्रय होय
तेमां ज आनंद होय. निमित्तमां के विभावमां आनंद नथी; तेथी जे परिणाममां
निमित्तनो आश्रय होय तेमां आनंद न होय.