श्री कानजीस्वामी–हीरकजयंती–अभिनंदन–अंक
ः ७४ः वैशाख सुद २
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आत्मानुं प्रिय–वहालुं–इष्ट होय तो ते केवळज्ञान छे. आवो केवळज्ञान स्वभाव
जेने प्रिय के इष्ट लागे नहि. “जगत इष्ट नहि आत्मथी.”
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भाई, तारा अतीन्द्रिय चैतन्यतत्त्व सिवाय बाह्य इन्द्रिय–विषयोना सुखमां
खरेखर सुख नथी पण सुखाभास छे. जेम मृगजळमां खरेखर जळ नथी पण जळनो
मिथ्या आभास छे. तेम विषयोमां सुख नथी, सुखनो मिथ्या भास छे.
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ज्यां स्वविषयमां डुबकी मारी त्यां निर्विकल्प आनंद उल्लसे छे. ज्यां सुधी
बाह्य विषयो तरफ वलण छे त्यांसुधी दुःख ज छे. जो दुःख न होय तो बाह्यविषयो
तरफ केम दोडे!
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अज्ञानी कहे छे के पर विषयोनी अनुकुळतामां सुख छे. ज्ञानी कहे छे के
चैतन्यथी बहार परविषय तरफ वलण जाय ते दुःख छे. सुखना साचा स्वरूपनी
अज्ञानीने खबर नथी.
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मुनिवरोने संयोगवगर निजानंदना अनुभवमां जे सुख छे, चक्रवर्तीना के
इन्द्रना वैभवमांय ते सुखनो अंश पण नथी. इन्द्रियविषयोमां चैतन्यना
अतीन्द्रियआनंदनी झांइ पण नथी.
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दुःखनुं कारण अज्ञान छे, सम्यग्ज्ञान सुखनुं कारण छे. ज्यां अज्ञान नष्ट थयुं ने
पूरुं ज्ञान खीली गयुं त्यां पूर्ण सुख छे.
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स्वभाव सन्मुख थतुं ज्यां अतीन्द्रिय ज्ञान खील्युं त्यां इष्टरूप एवा परम
आनंदनी प्राप्ति थइ, ने अनीष्ट दूर थयुं. अनीष्टरूप तो परभावमां हतो ते ज्यां दूर
थयो त्यां जगतनुं कोई परद्रव्य जीवनुं अनीष्ट करवा समर्थ नथी.