कहूं न सुख संसारमें सब जग देख्यो छान.
कर्म बलि नट चारुं गतिमें बहुविध नाच नचावे.
गद विन तन पावे तो धन नहि, धन पा तुरत नशावे,
तातें भव–तन–भोग राग तज शिवमग लही शिव जावे.
रह्यो छे. क्यांक रोग वगरनुं तन मळे तो धन न होय, धन मळे तो पाछुं तरत चाल्युं
जाय. आम क्यांय सुख नथी. माटे हे जीव! संसारना भव–तन ने भोगोथी विरक्त
थईने, तुं शिवमार्ग लईने शिवपुरी तरफ जा.
युं कबहूं ईस जीवको साथी सगा न कोय.
मात पिता सुत द्वारा प्रियजन कोई न साथी आवे.
पुण्य पाप या धर्म ही साथी, तन धन यहीं रहावे,
सुख दुःख सबही ईकला भुगते ईकला चहुंगति धावे.
पुण्य–पाप के धर्म ज छे, ए ज एनी साथे जाय छे, तन–धन ने सगां तो अहीं ज
पड्या रहे छे. आ रीते चार गतिमां सुख–दुख जीव एकलो ज भोगवे छे. –आवुं
एकत्व जाणीने, परनो मोह छोडी, हे जीव! तुं तारा आत्माने एकत्वस्वभावनी
भावनामां जोड.
घर संपत्ति पर प्रगट ये पर है परिजन लोय