Atmadharma magazine - Ank 248
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९०
(३) संसार भावना
दाम विना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान,
कहूं न सुख संसारमें सब जग देख्यो छान.
सब जग देख्यो छान सबहि प्राणि अति दुःख जु पावे,
कर्म बलि नट चारुं गतिमें बहुविध नाच नचावे.
गद विन तन पावे तो धन नहि, धन पा तुरत नशावे,
तातें भव–तन–भोग राग तज शिवमग लही शिव जावे.
[आखा जगतमां तपास करीने जोयुं तो संसारमां बधाय प्राणीओ दुःखी छे;
निर्धन पण दुःखी छे ने धनवान पण दुःखी छे. कर्मवश जीव चारे गतिमां नाच नाची
रह्यो छे. क्यांक रोग वगरनुं तन मळे तो धन न होय, धन मळे तो पाछुं तरत चाल्युं
जाय. आम क्यांय सुख नथी. माटे हे जीव! संसारना भव–तन ने भोगोथी विरक्त
थईने, तुं शिवमार्ग लईने शिवपुरी तरफ जा.
]
(४) अकत्व भवन
आप अकेलो अवतरे, मरे अकेलो होय,
युं कबहूं ईस जीवको साथी सगा न कोय.
साथी सगा न कोय मरणकर जब परभवमें जावे,
मात पिता सुत द्वारा प्रियजन कोई न साथी आवे.
पुण्य पाप या धर्म ही साथी, तन धन यहीं रहावे,
सुख दुःख सबही ईकला भुगते ईकला चहुंगति धावे.
[जीव एकलो अवतरे छे, ने मरीने एकलो ज परभवमां जाय छे, माता–पिता,
पुत्र, स्त्री, बंधुजन प्रियजन कोई एनुं साथी के सगुं नथी. तेना साथी तो तेणे करेला
पुण्य–पाप के धर्म ज छे, ए ज एनी साथे जाय छे, तन–धन ने सगां तो अहीं ज
पड्या रहे छे. आ रीते चार गतिमां सुख–दुख जीव एकलो ज भोगवे छे. –आवुं
एकत्व जाणीने, परनो मोह छोडी, हे जीव! तुं तारा आत्माने एकत्वस्वभावनी
भावनामां जोड.
(प) अन्यत्व भवन
जहां द्रह अपनी नहीं तहां न अपनो कोय,
घर संपत्ति पर प्रगट ये पर है परिजन लोय