Atmadharma magazine - Ank 248
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९० आत्मधर्म : २५ :
–के ९६ करोड पायदळथी रक्षायेलो चक्रवर्ती, –ए कोई आ संसारमां स्थिर नथी, अमुक
समये एनी स्थिति पूरी थतां ते बीजे चाल्या जशे–सबको जाना एक दिन अपनी
अपनी वार’ स्थिर तो एक धु्रव चिदानंद स्वभाव ज छे, ते ज शरण छे, ते ज सार छे,
एनुं शरण करनारने कदी मरण थतुं नथी. जगतमां अनित्यताना जन्म–मरणना नाना
मोटा प्रसंगो हररोज क्षणे ने पळे बनता ज होय छे, पण ज्यारे कोई मोटो प्रसंग बने
त्यारे संसारनी क्षणभंगुरता जाणे आखा विश्वमां व्यापी गई होय एम स्पष्ट देखाय
छे. एटले बार वैराग्य भावनाओनुं निरंतर चिंतन करवानुं संतोए बोध्युं छे. आ
महा वैराग्य प्रसंगे आपणे पं. श्री भूधरदासजी रचित बार वैराग्यभावना चिंतवीए–
(१) अनत्यभवन
राजा राणा छत्रपति हाथिनके असवार
मरना सबको एकदिन अपनी अपनी वार
अपनी अपनी वार सर्व प्राणी ज अवशि मर जावे
अन्य समस्त पदारथ जगमें कोउ थिर न रहावे;
ये पर वस्तु मोहवश मनमें राग रू द्वेष बढावे,
तातें परमें रागरोष तज जो उत्तम पद पावे.
[जगतमां कोई वस्तु स्थिर नथी, काळस्थिति पूरी थतां दरेक प्राणी अवश्य मरे
छे, जीव मफतनो मोहवश परमां रागद्वेष वधारे छे. हे जीव! तुं परमां रागद्वेष
छोड....जेथी उत्तम पदनी प्राप्ति थाय.
]
(२) अशरण भवन
दलबलदेईदेवता मातापिता परिवार
मरती विरियां जीवको कोई न राखनहार.
कोई न राखनहार जीवके जब अंतिम दिन आवे,
औषध यंत्र मंत्रकी शरणा ग्रहे भी कोई न बचावे.
रत्नत्रय धर्म ही एक शरणा यही सर्व जन गावे,
तातें सबकी शरण छोड, ग्रहु धर्म मुक्तिपद पावे.
[जीवनो अंतसमय आवतां कोई तेने राखी शकनार नथी, कोई यंत्र–मंत्र के
औषध तेने बचावनार नथी; एक रत्नत्रयधर्म ज शरणरूप छे. माटे हे जीव! बीजा
बधानुं शरण छोडीने ए धर्मनुं ज ग्रहण कर, –जेथी मुक्तिपद पमाय.
]