Atmadharma magazine - Ank 248
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९०
मुक्तस्वरूप आत्मा जे द्रष्टिमां आव्यो ते द्रष्टिमां वळी बंधन केवुं? एवी द्रष्टिने
बीजा कोईनुं अवलंबन नथी. पहेलां विकल्प हतो तेनी मददथी आवी द्रष्टि प्रगटी एम
नथी. ए द्रष्टि निरालंबी छे, रागना विकल्पनो एमां अभाव छे. एकवार आवी द्रष्टि
थई त्यां निःशंकता वगेरे आठ गुणो प्रगट्या. अंतरमां एनुं भावभासन थाय तो
मार्ग प्रगटे. विकल्पोना ने शरीरना नाटकोथी जुदो पुद्गलना स्वांगोथी पार ज्ञायकमूर्ति
आत्मा छे, एना ज अवलंबने लाभ छे. ए ज्ञायकतत्त्व कोईथी बिलकुल घेरायेलुं छे ज
नहि, रागनो घेरो पण तेने नथी, राग पण तेनाथी बहार ज छे. अरे, आवुं निरूपाधि
तत्त्व, बधाथी छूटुं ने छूटुं, ते प्रतीतमां आवतां ज क्यांय आत्मबुद्धि न रही, कोई
परभावमां अटकवानुं न रह्युं, परिणाम स्वभावभाव तरफ ढळ्‌या... एटले शुद्धता ज
थवा लागी, परभावथी जुदो ने जुदो ज रहेवा लाग्यो.–आवी धर्मीनी दशा छे.
यात्रा पछीनुं आ सोनगढमां मंगलाचरण थाय छे. सम्यग्ज्ञाननो दीवो... ए
चीरंजीवो... ए ज मंगळरूप छे. स्वसत्ताना अंतर्मुख अवलंबनरूप परिणतिमांथी
परभाव खरी गया छे... ते परिणति ज निर्जरा छे, ने ते ज मंगळ छे. वीतरागी
जैनसन्देश तो आम करवानुं बतावे छे. परभावनुं अवलंबन करवानुं बतावे ते
‘जैनसन्देश’ नहि, धर्मात्माने क्यांय कोई परना अवलंबननी भावना ज नथी.
स्वभावना अवलंबनरूप भावने ज ते पोतानो जाणे छे, ने ते भावथी ज तेने निर्जरा
थाय छे; सम्यक्त्वना आठेय गुण (अंग) तेमां समाई जाय छे.
दु:ख तो घणां सहन कर्या. पण?
अरे जीव! अनंतसंसारमां परिभ्रमण करतां तें घणां दुःखो
सहन कर्या, नरकादिना घोरमां घोर दुःखोथी तुं सोंसरवट नीकळी
गयो–प....ण....विराधकभावे; एकवार जो आराधकभावे बधा
दुःखोथी सोंसरवट नीकळी जा एटले के गमे तेवी प्रतिकूळता आवे
तोपण आराधकभावथी तुं डग नहि, तो फरीने आ संसारनुं कोई
दुःख तने न आवे–ने तारुं सुखधाम तने प्राप्त थाय.
(चर्चामांथी)