नथी. ए द्रष्टि निरालंबी छे, रागना विकल्पनो एमां अभाव छे. एकवार आवी द्रष्टि
थई त्यां निःशंकता वगेरे आठ गुणो प्रगट्या. अंतरमां एनुं भावभासन थाय तो
मार्ग प्रगटे. विकल्पोना ने शरीरना नाटकोथी जुदो पुद्गलना स्वांगोथी पार ज्ञायकमूर्ति
आत्मा छे, एना ज अवलंबने लाभ छे. ए ज्ञायकतत्त्व कोईथी बिलकुल घेरायेलुं छे ज
नहि, रागनो घेरो पण तेने नथी, राग पण तेनाथी बहार ज छे. अरे, आवुं निरूपाधि
तत्त्व, बधाथी छूटुं ने छूटुं, ते प्रतीतमां आवतां ज क्यांय आत्मबुद्धि न रही, कोई
परभावमां अटकवानुं न रह्युं, परिणाम स्वभावभाव तरफ ढळ्या... एटले शुद्धता ज
थवा लागी, परभावथी जुदो ने जुदो ज रहेवा लाग्यो.–आवी धर्मीनी दशा छे.
परभाव खरी गया छे... ते परिणति ज निर्जरा छे, ने ते ज मंगळ छे. वीतरागी
जैनसन्देश तो आम करवानुं बतावे छे. परभावनुं अवलंबन करवानुं बतावे ते
‘जैनसन्देश’ नहि, धर्मात्माने क्यांय कोई परना अवलंबननी भावना ज नथी.
स्वभावना अवलंबनरूप भावने ज ते पोतानो जाणे छे, ने ते भावथी ज तेने निर्जरा
थाय छे; सम्यक्त्वना आठेय गुण (अंग) तेमां समाई जाय छे.