सोनगढ आव्या पछीना पहेला प्रवचन वखते सभाना शांत–
अध्यात्म वातावरण वच्चे पू. श्री कहानगुरुए कह्युं: सम्यग्ज्ञाननो
दीवो... मंगळरूप छे...ते चिरंजीवो...ए ज्ञानमां कोई रागनो के
संयोगनो घेरो नथी...बधाथी छूटुं ए ज्ञान पोते मंगळरूप छे.
निर्जरा थती जाय छे ने शुद्धता वधती जाय छे. आत्मा टंकोत्किर्ण ज्ञायकभाव,–जेना
स्वभावमां रागादि परभावोनो अभाव,–एवा ज्ञायकस्वभावमय समकितीनुं परिणमन
छे, ए ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां गुण–गुणीना भेदनो विकल्प पण नथी. जगतमां जेम
जड छे, जेम रागादि परभावो छे, तेम ज्ञायकस्वभाव पण छे, ते ज्ञायकस्वभावने
शोधनारी द्रष्टिमां रागादिनो के कर्मनो अभाव छे. आवी द्रष्टिवंत धर्मात्माने निःशंकतने
लीधे निर्जरा ज थाय छे.–आ अपूर्व मंगळ छे.
एवी शंका धर्मात्माने नथी; ते निःशंक छे के मारो आत्मा ज्ञायकस्वभावमय ज छे.
चिदानंदरसथी भरपूर मारो आत्मा, तेमां परिणमेलुं मारुं ज्ञान निर्विकल्प छे, तेमां
बंधन करनारा मिथ्यात्वादिभावोनो अभाव छे. माटे आवी द्रष्टिवंत धर्मात्माने
मिथ्यात्वादिकृत बंधन थतुं ज नथी, सम्यक्त्वादिथी तेने निर्जरा ज थाय छे. आनुं नाम
धर्म...ने आनुं नाम शांति.
आत्मा छूटवा लाग्यो. समकितीनी निर्जरानी आ स्थिति छे. अहो, आमां जगतथी
केटलो वैराग... ने अंतरनी केटली शांति! ते अज्ञानीने खबर पडे तेम नथी.