आसोः २४९०ः ७ः
ज्ञानीना मार्गनी प्रसिद्धि
[भादरवा मास दरमियान पंचास्तिकाय उपरना प्रवचनोमांथी दोहन]
जीव अने अजीवना स्वरूपनो वास्तविक भेद
जाणवो ते ज्ञानीओना सम्यक् मार्गनी प्रसिद्धिनुं
कारण छे. सम्यक्मार्गनी प्रसिद्धि माटे संतोए जीव–
अजीवनुं भिन्न स्वरूप जेम छे तेम ओळखाव्युं छे; ते
ओळखतां स्वाश्रयरूप वीतरागभाव प्रगटे छे. अहो,
सन्तोए जीव–अजीवनुं स्पष्ट भेदज्ञान करावीने
सम्यक्मार्गने प्रसिद्ध कर्यो छे...जगतने सम्यक्मार्ग
देखाडीने उपकार कर्यो छे.
जीव–पुद्गलनी भिन्नताना निर्णयमां वीतरागभाव
जगतमां जीव अने पुद्गलो संयोगरूपे एकक्षेत्रे रह्या होवा छतां बंनेनुं स्वरूप
भिन्नभिन्न छे. पुद्गलमय एवुं शरीर, अने ज्ञानमय एवो जीव ए बंने जुदा ज छे,
अत्यारे पण बंनेनुं स्वरूप जुदुं ज छे. शरीर अने शरीरी, एटले के देह अने आत्मा,
बंने भिन्नभिन्न पोतपोताना स्वरूपमां परिणमी रह्या छे. शरीर तो वर्ण–गंध–रस–
स्पर्शरूप मूर्त भावोरूपे परिणमी रह्युं छे, ने शरीरी–आत्मा तो अमूर्त–ज्ञान–दर्शन–
आनंद वगेरे भावोरूपे परिणमी रह्युं छे.–आम ज्ञानी बंनेना भिन्नस्वरूपने जाणे छे.
अज्ञानी बंनेने एकमेक मानीने भ्रमथी प्रवर्ते छे. कोई ज्ञानी–मुनि उपदेश देता होय
त्यां उपदेशना शब्दो वर्णादि मूर्तभावपणे जुदा परिणमे छे अने उपदेशक ज्ञानीनुं ज्ञान,
एमनो अभिप्राय ते अमूर्तज्ञानभावपणे शब्दोथी जुदो ज वर्ते छे. ते अमूर्तज्ञानमां
मूर्तवाणीनुं कर्तृत्व नथी; अने ते मूर्तशब्दो कर्ता थइने श्रोताने ज्ञान उपजावे एम पण
बनतुं नथी. श्रोतानो आत्मा पोते पोताना स्वरूपथी ज पोताना ज्ञानभावपणे
परिणमे छे.–आवा स्वाधीन स्वरूपना निर्णयमां स्वाश्रय वीतरागभाव प्रगटे छे.
एकबीजाना कारणे एकबीजामां कांई थाय–एवी पराश्रयबुद्धिमां वीतरागभाव थतो
नथी, पण रागद्वेष थाय