आत्मधर्म रजीस्टर नं. जी १८२
धर्मसाधनमां एक
क्षणनोय विलंब न हो
(कोईक वैराग्यप्रसंगे थयेल चर्चा उपरथी)
जीवने घणी वार प्रमादने लीधे एम थाय छे के हजी उमर नानी
छे, अमुक वर्ष पछी आत्महितमां ज जीवन वीतावशुं......
पण भाई....आ नानी उमरमांथी मोटी उमर थशे ज–एवी शुं
तने आयुषनी बांहेधरी छे? अत्यारे ४० वर्ष छे तो पप के ६० वर्ष
सुधी आयुष रहेशे ज–एनी शुं तने कोई खातरी छे? ना; तो पछी एवी
अनिश्चित वस्तुना आधारे धर्ममां विलंब न कर. १प–२० वर्षनी नानी
वयमां ज घणाना आयुष पूरा थई जता देखीए छीए. वळी, आठ वर्ष
(गर्भवाससहित) नी वय थई गया पछी धर्मने माटे तारी उमर योग्य
थई ज गई छे; आठ वर्ष थई जाय त्यारे धर्मने माटे नानी वय गणाय
नहि. आयुष्य भले लांबु होय तोपण तेनो जे समय धर्मसाधनमां वीते
ने ज उत्तम छे. बीजा निष्प्रयोजन कार्योमां जीवन वीते ते तो निष्फळ
छे. माटे ‘पछी’ एवो प्रमादभाव दूर करीने ‘अत्यारे’ एवो
उत्साहभाव कर....ने सर्व उद्यमने धर्म साधनमां जोड.
जे ‘पछी’ करवानुं कहे छे ते आत्मकार्यनो जो तने खरेखर प्रेम
छे तो अत्यारे ज शा माटे तेमां प्रवृत नथी थतो? आत्महितना कार्य
करतां बीजुं तो कोई उत्तम कार्य आ जगतमां छे नहीं.
अष्टाह्निका दरमियान सोनगढमां ‘श्री जिनेन्द्र सहस्रवसु
(१००८) नाम मंडलविधानपूजन’ थयुं हतुं. आ मंडलविधान
सोनगढमां बीजी वखत थयुं.
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श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक: अनंतराय हरिलाल शेठ, आनंद प्रिन्टिंग प्रेस–भावनगर