धर्मात्मानी
साची संपदा
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जेनाथी पापबंधन अने दुर्गति थाय–ते संपदा नथी
पण विपदा छे: साची संपदा तो ते छे के जेनाथी
आत्मा बंधनथी छूटीने केवळज्ञान ने परमआनंदरूप
मोक्षलक्ष्मी पामे.
कोई जीव बाह्य संपदानो ज अनुरागी थईने पापप्रष्टत्तिमां ज वर्ततो होय ने
आत्महितने भूली रह्यो होय, तो तेने समजाववा श्रावकाचारमां स्वामी समन्तभद्र कहे
छे के–
यदि पापनिरोधोऽम्य संपदा किं प्रयोजनम्।
अथ पापास्त्रवोऽस्त्यन्य संपदा किं प्रयोजनम्।।२७।।
सम्यग्द्रष्टि विचारे छे के जो मारे ज्ञानावरणादि अशुभ पापप्रकृतिओनो आस्रव
अटकी गयो छे एटले के मारी चैतन्यसंपदा मने प्रगटी छे तो तेनाथी अन्य बीजी बाह्य
संपदाथी मारे शुं प्रयोजन छे? अने जो पापना आस्रवपूर्वक बाह्यसंपदा आवती होय–
तो एवी संपदाथी मारे शुं प्रयोजन छे?
जो आ जीवने त्याग–संयमरूप प्रवृत्ति वडे पापास्रव अटकी गयो छे, ने अन्य
ईन्द्रियविषयोनी संपदा के राज्यऐश्वर्यसंपदा वगेरे नथी–तो ते संपदानुं शुं प्रयोजन
छे? आस्रवना रोकावाथी तो निर्वाणसंपदा के स्वर्गलोकनी अहमीन्द्रादि सम्पदा प्राप्त
थाय छे; तो पछी आ खाख–धूळ जेवी, कलेशथी भरेली क्षणभंगुर संपदानुं शुं काम छे?
पापास्रवना अभावथी तो निबंध नामनी सम्पदा प्रगटे छे ते महा विभूति ज महान
लक्ष्मी छे. अने जो अन्याय अनीति कपट छल चोरी ईत्यादि वडे निरंतर पापास्रवपूर्वक
धनसम्पदा प्राप्त थती होय तो एवी सम्पदानुं मारे शुं काम छे?–एवा पापथी तो मरीने
जीव अंतर्मुहूर्तमां नरकमां नारकीपणे उपजे. सम्यग्द्रष्टिने तो पापकर्मना आस्रवनो घणो
भय छे, अने पापनो आस्रव अटके तेने ते महासंपदानो लाभ माने छे. अने आ
संसारनी सम्पदाने तो पराधीन, दुःख देनारी जाणीने तेनी लालसा करता नथी; अने
कदाचित लाभांतराय भोगांतराय कर्मना क्षयोपशमथी लक्ष्मी प्राप्त थाय तो तेने
पराधीन, विनाशीक, बंधन करनारी जाणीने तेमां लिप्त थता नथी.