बहार छे.
वगेरेनो योग मळे, धर्मात्मानो ने तीर्थंकर वगेरेनो योग मळे एवा प्रकारना विशिष्ट
पुण्य सत्य– स्वभावना आदरपूर्वक श्रवणमां बंधाय छे. जो के ते पुण्य कांई स्वभावनी
प्राप्ति तो न करावी धे, पण धर्मना बहुमानना संस्कार भेगा लई जाय तो बीजा
भवमांय धर्मश्रवण वगेरेनो योग मळे ने अंर्तप्रयत्न करे तो स्वभावनी प्राप्ति थई
जाय. सत्यना श्रवणमां जेने उत्साह आव्यो ते पण भाग्यशाळी छे. अरे, अत्यारे तो
केवी केवी विपरीत प्ररूपणा ने असत्य चाली रह्या छे, तेनी वच्चे आवा परम सत्य
स्वभावना श्रवणनो प्रेम जागवो ने सत्य तरफ झूकाव थवो तथा एना द्रढ संस्कार
साथे लई जवा ते महान लाभनुं कारण छे. एकवार ऊंडेऊंडे सत्यस्वभावनो प्रेम
जगाडीने तेना संस्कार आत्मामां जेणे रोप्या तेने जरूर अल्पकाळे ते संस्कार पांगरीने
आत्मानी प्राप्ति थशे.
ज्ञानचेतनाने नचावता थका चैतन्यना प्रशमरसने सादिअनंतकाळ सुधी पीओ. ज्ञानीने
ज्यां ज्ञानचेतना प्रगटी त्यां हवे क््यांय परभावमां अटकी जवानुं तो छे ज नहि, हवे
तो आनंदपूर्वक चैतन्यरसने पीतांपीतां मोक्षने साधवानो छे...अनुभवनी वृद्धि ज
करता जवानी छे. अज्ञानीओने ज्ञानचेतनानी आनंदधारानी तो खबर नथी, एटले
क््यांय ने क््यांय परभावमां तेने अटकी जवानुं बनी जाय छे. ने ज्ञानीने तो आनंदनी
धारा उल्लसी छे....ते तरफ ज परिणतिनो वेग वळ्यो छे....एटले आत्माने तेमां ज
उत्साहित करे छे के हे आत्मा! हवेथी सदाकाळ आ प्रशमरसने पीतांपीतां पूर्णताने
पाम! साधक तो थयो, हवे अनुभवनी उग्रता करीने सिद्ध था. ए ज आत्मानुं काम छे.
अज्ञानदशामां संसारनो काळ गयो ते तो गयो, पण हवे चैतन्यनुं भान थयुं त्यारथी
मांडीने सदाकाळ आ चैतन्यरसने ज पीओ. जेणे चैतन्यना अमृतरस चाख्या तेने
विकारनां झेर केम गमे! चैतन्यनो शांतरस पीधो तेने चैतन्यरसनी मीठास पासे
आखोय संसार खारो लागे छे, एटले एकवार चैतन्यनो मीठो स्वाद जेणे चाख्यो तेनी
परिणति परभावमां कदी नहि जाय, सदाय जुदी ज रहेशे. आवी अनुभूति प्रगट
करवी–ए ज आत्मानुं काम छे.