Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : आत्मधर्म : २३ :
श्रावकने होतो नथी. सर्वार्थसिद्धिना देव करतां य तेनी भूमिका ऊंची छे. जगतमां सौथी
मोटो सर्वार्थसिद्धिनो देव, तेना करतां अनंतगुण अधिक विशुद्धि ज्यां प्रगटी थई छे त्यां
श्रावकने (–कदाचित् ते बळद वगेरे तिर्यंचपर्यायमां होय तोपण तेने) अपजश केवो?
अनादेयपणुं केवुं? ने दुर्भाग्यनो उदय केवो? सर्वार्थसिद्धिना देव करतां अनंती
गुणप्रशंसा प्रगटी गई छे, तेना अनुभवमां वळी कर्मप्रकृतिनो अनुभव केवो? अरे,
ज्ञानीए स्वानुभूतिमां जे चैतन्यरस पीधां छे तेनी अज्ञानीने खबर नथी.
समकिती कहे छे के तीर्थंकरप्रकृतिनो भोगवटो पण मारा चैतन्यनी
अनुभूतिमां नथी. अरे, तीर्थंकरप्रकृति बंधाणी ते जीव ज्यां जन्मे त्यां तो ईन्द्रोना
ईन्द्रासन जराक चळी जाय: पण धर्मी कहे छे के तीर्थंकर प्रकृतिना प्रतापे ईन्द्रना
ईन्द्रासन चळे तो भले चळे, पण हुं तो मारा चैतन्यसिंहासनमां अचल छुं; मारुं
अचल चैतन्यसिंहासन तीर्थंकर प्रकृतिना उदयथी पण चलित थतुं नथी. अहा,
साधकने पवित्रतानी साथेना एक विकल्पथी जे तीर्थंकर प्रकृति बंधाणी तेनो एटलो
महिमा के जगतने आश्चर्य उपजावे, तो ते जीवनी पवित्रतानी शी वात? धर्मी जाणे
छे के हुं तो मारी पवित्रताने ज भोगवनार छुं, वच्चेना विकल्पने के तेना फळने
भोगवनार हुं नथी.–आवी चैतन्यभावनाना बळथी धर्मात्मा समस्त कर्मफळने
छोडे छे; उपयोगने वारंवार अंतरमां एकाग्र करीने रत्नत्रयने पुष्ट करे छे.
धर्मात्माने पवित्रता अने साथे पुण्य बंने अलौकिक होय छे; पण तेमां धर्मी
पवित्रतानो ज भोक्ता छे, पुण्यनो नहि.
चैतन्यतेजथी झबकतो ज्ञानदीवडो तेना प्रकाशमां वळी विकारनां अंधारा केम
होय? चैतन्यना आनंदना वेदनमां वळी कर्मनुं फळ क््यांथी घूसी गयुं? ज्ञानमां वळी
बीजुं कोण घूसी जाय? ज्ञानमां तो ज्ञाननुं ज वेदन होय; ज्ञानमां विकारनुं के जडनुं
वेदन केम होय? अगवडतानो प्रसंग हो के सगवडतानो प्रसंग हो, तेनुं वेदन ज्ञानमां
नथी; बहारनी अगवडता ज्ञानमां कांई दुःखनुं वेदन करावी दे, के बहारनी सगवडता
ज्ञानमां कांई सुखनुं वेदन करावी धे,–एम नथी, केमके ज्ञानने बहारना पदार्थनुं वेदन
ज नथी. अहा, आवा ज्ञानने प्रतीतमां लईने धर्मी जीव चैतन्यना आनंदने ज भोगवे
छे
धर्मी जीवने एवी भावना छे के मारा चैतन्यना आनंदना वेदननी आ परिणति
सदाकाळ आवी ने आवी टकी रहो. मारी परिणतिनो प्रवाह सदाकाळ चैतन्यना
अनुभवमां ज वहो, आनंदना भोगवटामां ज सदा मारी परिणति एकाग्र रहो. हवे
आ चैतन्यना अनुभवमांथी कदी सादि–अनंतकाळमां बहार नीकळवुं नथी. कर्मफळनो
भोगवटो मने न हो.