Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 25 of 29

background image
: २२ : आत्मधर्म : मागशर :

धर्मी जीवने आत्मा बहु वहालो छे; स्वानुभूतिना
कार्यने ज ते पोतानुं काम समजे छे. ते जाणे छे के
पराश्रयना बीजा काममां जोडावुं ते तो संसारनुं
कारण छे; ने आत्माना अनुभवनुं आ काम तो
स्वाधीन छे ने मोक्षनुं कारण छे. अहा, ज्ञानीए
स्वानुभवमां जे चैतन्यरस पीधां छे तेनी अज्ञानीने
खबर नथी.
(समयसार: सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकारना प्रवचनमांथी: कारतक मास)
मारो आत्मा चैतन्यनी अनुभूति करनारो छे; रागनो के कर्मफळनो भोगवनार
खरेखर मारो आत्मा नथी.–आम धर्मी जीव पोताना आत्माने चैतन्यस्वरूपे ज संचेते
छे. ने समस्त कर्मफळने ज्ञानस्वभावना वेदनथी बहार जाणीने छोडे छे.
मारा आत्माने चैतन्यस्वरूपे अनुभववो ते ज मारुं काम छे, ते ज जीवनमां
करवा जेवुं मुख्य काम छे. बीजां काम करतां आ कार्य कोई जुदी जातनुं छे पराश्रयना
बीजा काममां जोडावुं ते तो संसारनुं कारण छे, ने आत्माना अनुभवनुं आ काम तो
स्वाधीन छे ने मोक्षनुं कारण छे.
मारे श्रद्धवालायक–प्रीति करवा लायक, जाणवा लायक ने लीन थवा लायक एक
ज स्थान छे–ने ते आ चैतन्यस्वरूप मारो आत्मा ज; एनाथी भिन्न बीजुं कांई मने
वहालुं नथी, आम धर्मी जीवने आत्मा बहु वहालो छे; ते धर्मप्रेमी छे, ‘आत्मप्रेमी’ छे,
जगतनो प्रेम तेने ऊडी गयो छे एटले जगतथी तो ते उदास छे.–आवी धर्मीनी दशा छे.
आत्मा जेने प्रिय छे चैतन्यना अनुभवथी बहारना बीजा कोई भावने पोतानुं
फळ मानतो नथी; अरे, मारा चैतन्यनुं फळ तो वीतरागी आनंद छे, तेनुं वेदन करनार
हुं छुं, राग के रागना फळरूप जे १४८ प्रकृति तेना फळनो भोगवटो मारी स्वानुभूतिमां
नथी; कर्म ने कर्मफळ ए बधाय मारी अनुभूतिथी बहार छे. आनंदथी भरेली,
चैतन्यरसथी उल्लसती वीतरागी स्वानुभूति ए ज मारुं काम छे.
अपशय, अनादेय अने दुर्भाग्य–ए त्रण अशुभ प्रकृतिनो उदय ज पांचमा
गुणस्थाने