Atmadharma magazine - Ank 254
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : आत्मधर्म : २१ :
हुं कोण छुं?
संसारनी चारे गतिमां दुःख छे ने आत्मज्ञान विना अत्यार सुधी जीव एकलुं
दुःख ज पाम्यो छे, हवे हुं ते दुःखोथी छूटवा ने परम आनंदनी प्राप्ति करवा मारा परम
आत्मस्वरूपने जाणुं.–आम जेने जिज्ञासा थई होय ते आत्मस्वरूपनो निर्णय करे. मारुं
अस्तित्व केवुं छे, मारा अस्तित्वमां सामर्थ्य केटलुं छे? परमां तो मारुं अस्तित्व नथी.
हवे जे रागादि भावो दुःखरूप छे–तेना जेटलुं ज शुं मारुं अस्तित्व छे? ना. ए रागनी
वृत्तिथी पार, दुःख वगरनुं मारुं कायमी अस्तित्व छे,–के जेमां पूर्ण सुख ने पूर्ण ज्ञाननुं
सामर्थ्य भर्युं छे. एना सेवनथी ज केवळज्ञान ने सिद्धपद प्रगटे छे. मारो स्वभाव
सुखथी भरेलो छे, तेना सेवनथी ज सुखनो अनुभव प्रगटे.–आवा सम्यक्निर्णय वडे
स्वसंवेदनथी अतीन्द्रिय आनंदने धर्मीजीव अनुभवे छे.