वि...वि...ध...व...च...ना...मृ...त
आत्मधर्मनो चालु विभाग: लेखांक–४: विविध वचनामृतनो आ
विभाग प्रवचनोमांथी, विविध शास्त्रोमांथी तेमज रात्रिचर्चा वगेरे
प्रसंगो उपरथी तैयार करवामां आवे छे.
(११०) मुक्तिने माटे...
शुद्ध ज्ञानस्वभावी आ आत्मा सिद्धभगवान जेवी प्रभुताथी भरेलो छे. पोताना
आत्मामां सिद्ध जेवुं प्रभुत्व स्थापीने तेनो स्वानुभव कर्या सिवाय मुक्तिने माटे बीजो
कोई उपाय नथी ज नथी. मुक्तिने माटे हे मुमुक्षु! तुं आवी स्वानुभूतिनुं सेवन कर.
(१११) भेदज्ञानरूपी वीजळी
पर्वत उपर वीजळी पडवाथी जे फाट पडी ते फरी संधाय नहि, तेम
ज्ञानानंदस्वरूपना स्वानुभवना तीव्र अभ्यास वडे ज्यां भेदज्ञानरूप वीजळी पडी त्यां
आत्मा अने रागनी एकता वच्चे फाट पडी, ने मोह पर्वत भेदाई गयो, ते हवे फरी कदी
संधाय नहि; ज्ञानीनुं ज्ञान रागमां तन्मय थाय नहि. रे जीव! आवा भेदज्ञान वगर
बीजुं बधुं तें अनंतवार कर्युं, पण जन्म–मरणनां दुःख हजी न मट्या, माटे हवे ए ज
उद्यम कर जेथी जन्म–मरण मटे.
(११२) स्वानुभूति
ज्यां स्वानुभूति छे त्यां ज धर्म छे; ज्यां स्वानुभूति नथी त्यां धर्म नथी. मोक्षमार्ग
स्वानुभूतिमां समाय छे. स्वानुभूतिमां वीतरागता छे, स्वानुभूतिमां आनंदनी लहेर छे.
स्वानुभूति ते संतोना उपदेशनो सार छे. स्वानुभूति ए ज परमात्मानो साक्षात्कार छे.
स्वानुभूतिनो अजोड महिमा छे. नमस्कार हो स्वानुभवी सन्तने.
(११३) कोनां गाणां गवाय छे?
भाई, शास्त्रोए जे अगाध गाणां गाया छे ते कोनां?–तारा पोताना; शास्त्रोमां
सन्तोए आत्मस्वभावनो जे अचिंत्य महिमा खूब खूब वर्णव्यो छे ते बधो तारो ज
महिमा छे. माटे तारुं महिमावंत स्वरूप शुं छे ते लक्षमां ले, तो ज तने संतोनुं हृदय ने
शास्त्रोनुं हार्द समजाय. तारुं आराध्य तो तारामां ज छे.
(११४) ज्यां लगी आत्मा....
आ ज्ञानस्वरूप आत्मा देहादिथी ने रागादिथी जुदो छे. एवुं वास्तविकपणुं
ज्यांसुधी आत्मा न जाणे त्यांसुधी मोह मटे नहि. ज्यारे यथार्थस्वरूपे आत्मा
जाणवामां आवे त्यारे ज परनुं माहात्म्य टळे ने पोतानुं माहात्म्य आवे. अने आवुं
माहात्म्य आवे त्यारे ज आत्मानी खरी साधना थाय.