Atmadharma magazine - Ank 255
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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अहा, आत्मानी अनुभूति कोई अचिंत्य छे. जे अनुभूतिनुं स्वरूप सांभळवा
माटे स्वर्गना देवो ने ईन्द्रो पण आ मनुष्यलोकमां भगवाननी सभामां आवे छे, ए
अनुभूतिना महिमानी शी वात! एक क्षणनी अनुभूति समस्त कर्मोने भस्म करी नांखे
छे. आवी अनुभूतिवाळो जीव ज जगतमां सुखी छे. अनुभूति वगरना बधाय जीवो
दुःखी–दुःखी ज छे, पछी भले मोटो राजा हो के देव हो. सुख तो आत्मामां छे, तेनी
अनुभूति जेने छे ते ज सुखी छे. भाई, तुं अनादिथी दुःख वेदी रह्यो छे; ए दुःख कांई
तारा स्वभावमां भरेलुं नथी, तारा स्वभावमां तो सुख ज भरेलुं छे–ए स्वभावमां
अनुभूतिवडे प्रवेश कर तो तारी चैतन्यखाणमांथी आनंद अने सुख ज तने अनुभवमां
आवशे. माटे स्वानुभूतिवडे आवो आत्मस्वभाव ज उपादेय छे, एमां ज शांति छे;
बीजे क््यांय शांति–सुख के आनंद नथी ने बीजुं कांई उपादेय नथी.–आम हे शिष्य! तुं
जाण...ने तारा आत्माने ध्याव...एम अतीन्द्रिय आनंदनी प्राप्ति माटे सन्तोनो उपदेश
छे.
कोण वहालुं?
हे जीव! तुं विचार–के तने पैसा
वहाला के तारुं जीवन? बेमांथी कोण
तने वहालुं? अमने तो लागे छे के तने
पैसा करतां तारुं जीवन वहालुं नथी.
जो तारुं जीवन तने वहालुं होत तो,
पैसा खातर तारा जीवनने तुं गुमावत
नहि. पैसा खातर तुं तारा किंमती
जीवनने गुमावी रह्यो छे ते उपरथी
लागे छे के तने पैसा करतां तारुं जीवन
वधु वहालुं नथी, जीवन करतांय पैसा
तने वधु वहाला छे.–रे मोह!
: २४ : : पोष :