Atmadharma magazine - Ank 256
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : : महा :
के पुण्य–पाप नष्ट थाय छे. माटे स्वभावना अवलंबने जेनो नाश थाय छे ते मारो
स्वभाव नथी, माटे ते परभावो मारे आदरणीय नथी. मारे श्रद्धामां–ज्ञानमां ध्यानमां
सर्वत्र मारो एक ज्ञानस्वभाव ज आदरणीय छे. आथी विरुद्ध बीजा कोई भावने
आदरणीय माने तेने शुद्धात्मानुं ध्यान थाय नहि. सम्यकत्वनी रीत आ छे के आवा
शुद्धात्माने ध्यानमां ध्यावीने प्रतीतमां लेवो. पछी सम्यक् चारित्रनी रीत पण आ छे के
आवा शुद्धात्माने उपयोगमां लईने तेमां स्थिर थवुं. अभेद रत्नत्रयरूप जे मोक्षमार्ग,
तेमां आ शुद्धआत्मा ज उपादेय छे. रागने उपादेय करीने मोक्षमार्ग कोई जीव पामी
जाय–एम बनतुं नथी. अनंत चतुष्टयरूप जे अरिहंत दशा, ते ‘कार्यसमयसार’ छे, ने
तेना साधक जे अभेदरत्नत्रय, ते ‘कारण समयसार’ छे; एटले केवळज्ञानरूप
शुद्धकार्यनुं कारण तो शुद्ध–अभेदरत्नत्रय ज छे, बीजुं कोई तेनुं कारण नथी.
अहा, चैतन्यनो अचिंत्य प्रभाव छे, चैतन्यरत्नना ए अचिंत्य प्रभावने अभेद
रत्नत्रय ज झीली शके; चैतन्यना अचिंत्य प्रभावने राग झीली न शके, रागवडे ते
अनुभवमां न आवे. माटे कहे छे के हे भव्य! तुं तो जगतप्रकाशी चैतन्यसूर्य छो, तारा
प्रतापमां वळी विकार केवो? प्रकाशना पूंजमां अंधकार केवो? एम ज्ञानपूंजमां वळी
अज्ञान केवुं ने विकार केवो? माटे सर्वे परभावोथी रहित एवा शुद्ध चैतन्यपूंजने
ओळखीने एने ज ध्यानमां चिंतव. आत्मचिंतनरूप शुद्धोपयोगमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान
चारित्र समाई जाय छे, ते अतीन्द्रिय आनंदथी भरपूर छे. आवा आत्माने ध्यान वडे
जे उपादेय करे तेने ज मोक्षमार्ग थाय छे. एथी बीजे कयांय शोधे तेने मोक्षमार्ग मळे
नहि.
अरे जीव! तारो स्वभाव तो जो! जेनुं नाम लेतां पण आनंद थाय एना
अनुभवनी तो शी वात? आवा महिमावंत तारा शुद्धात्माने तुं केम भूल्यो? तारा
चैतन्यरत्नने तुं विकारनी धूळमां रोळी रह्यो छे. संसारना कादवमां तुं तारा
चैतन्यरत्नने रगदोळी रह्यो छे. शुद्धद्रष्टि वडे तारा भिन्न–निर्मळ चैतन्यरत्नने एकवार
देख, तो ए चैतन्यरत्नमांथी मोक्षमार्गनां किरण फूटशे; विकाररूप मेल ए चैतन्यरत्नना
अंदरना भागमां प्रवेशी गयो नथी.
अतीन्द्रिय आनंद साथे तन्मय एवा आत्मस्वभावने जेणे उपादेय कर्यो छे ते
सम्यग्द्रष्टि छे. ते सम्यग्द्रष्टि केवो छे! के पोताने पोताथी ज जाणे छे. आत्मा आत्मा
वडे ज जणाय छे, बीजा कोई वडे जणातो नथी. जेणे अंतर्मुख थईने शुद्धात्माने उपादेय
कर्यो ते जीव नियमथी निकटभव्य छे. भाई, तुं पहेलां नक्क्ी कर के सुखने माटे मारे
मारो शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे, रागादि कोई पर भाव मारे उपादेय नथी.–आम श्रद्धा
अने ज्ञान चोख्खा कर तो तने राग वगरनुं वीतरागी संवेदन प्रगटे.