: महा : : २३ :
(परमात्मप्रकाश–प्रवचनोमांथी)
अरे, संसारमां आ दुःखनो ककळाट! आ
अशांति!! एमांथी तारे बहार नीकळवुं होय तो हे
जीव! संतो तने आ एक मंत्र आपे छे के तारो आत्मा
शुद्ध परमात्मा छे–तेनी रुचि करीने तेनुं ज रटण
कर...जगतमां सुख कयांय पण होय तो ते शुद्धात्मामां ज
छे. अहा, चैतन्यरत्नना आ अचिंत्य प्रभावने रत्नत्रय
ज झीली शके....राग एने झीली न शके.
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अहीं मोक्षार्थीने शुं उपादेय छे? केवा स्वभावनुं तेणे चिंतन करवुं ए वात
समजावे छे. हे जीव! ज्ञानमय आत्मा सिवाय जे कोई अन्य परभावो छे ते बधाने
छोडीने, पोताना शुद्धआत्म–स्वभावनुं तुं चिंतन कर. आत्मा केवळज्ञानादि
अनंतगुणोनो राशी छे, चैतन्यपूंज छे, तेना गुणो कदी तेनाथी जुदा पडता नथी. पण
रागादि परभावो कांई तारा स्वभावनी चीज नथी, ते स्वभावमांथी उपजेला भावो
नथी पण परलक्षे उपजेला परभावो छे; ते बधाय परभावोने तुं छोड. पहेलां तो ‘हुंं
ज्ञानमय छुं ने आ परभावो ते हुं नथी एम श्रद्धामांथी ने ज्ञानमांथी तेने छोड; पछी
ए ज ज्ञानमय स्वभावने ज उपादेय करीने तेने ध्यानमां ध्याव. एमां एकाग्र थईने
एनुं चिंतन करतां समस्त परभावो छूटी जाय छे, ने चारित्रदशा प्रगटे छे.
अहीं तो भेदज्ञान माटे नियम बतावे छे के विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावथी विरुद्ध
जे कोई भावो छे ते सर्वने जीवना स्वभावथी जुदा जाणो. ‘‘हुं तो शुद्ध चिन्मय भाव
ज छुं, ए सिवाय बंधना हेतुभूत एवा रागादि भावो ते हुं नथी.–आवा भेदज्ञानना
सिद्धान्तनुं सेवन मुमुक्षुओ करे छे. चैतन्यनी भूमिकामांथी तो आनंदना फूवारा प्रगटे
छे; चैतन्यभूमिमांथी कांई रागना अंकुरा नथी नीकळता. राग तो आस्रव तत्त्व छे, ने
मोक्षमार्ग संवर–निर्जरारूप छे, आस्रव–तत्त्वमांथी संवरनिर्जरा केम आवे?
चैतन्यस्वभावने उपादेय करतां संवर–निर्जरा ने मोक्षतत्त्व प्रगटे छे, आस्रव–बंध