Atmadharma magazine - Ank 256
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : : महा :
तारी सुखशक्ति एवी छे के ज्यां दुःख कदी प्रवेशी शकतुं नथी. माटे आत्मामां डुबकी
मारीने तारी सुखशक्तिने उछाळ. उछाळ एटले के पर्यायमां परिणमाव, जेथी तारा सुखनो
प्रगट अनुभव तने थशे. तुं ज्यां छो त्यां ज तारुं सुख छे. ईन्द्रपदमां य जे सुख नथी ते
सुख आत्मामां छे. आत्मानी सुखपरिणति जे प्रगटी ते सदाकाळ आत्मा साथे रहे छे.
चैतन्यशक्तिनो रस अद्भुत छे; एनी शांति अपार छे.
(१६) वचनातीत
आत्माना प्रदेशो असंख्य, तेमां अनंतागुणो; ज्यां एक गुण छे त्यां ज अनंतगुणो
छे. ए अनंतगुणो शब्दोथी न कही शकाय, केमके शब्दो तो संख्याता ज छे ने गुणो अनंत
छे. पण आत्माना स्वानुभवमां बधाय गुणोनुं वेदन एक साथे थई जाय. चैतन्यने भेटतां
अनंतगुणनो रस पीवाय छे. आवो अनुभव ए ज अनेकान्तनुं फळ छे. ए अनुभव
वचनमां ने विकल्पमां पूरो आवतो नथी, एटले वचन के विकल्पवडे ते अनुभव थतो नथी,
शक्तिस्वभावनी सन्मुखताथी ज ते अनुभव थाय छे, तेनो आनंद वचनातीत छे. वचनमां
तो मात्र ईशारा आवे.
(१७) तद्रूप परिणमनपूर्वक प्रतीत
परांग्मुख रहीने आत्मशक्तिनी प्रतीत थई शकती नथी. आत्मशक्तिनी प्रतीत
आत्म सन्मुखतावडे ज थाय छे. आत्मसन्मुख थतां पर्यायमां शक्तिनुं निर्मळ परिणमन
थाय छे; एटले पर्यायमां निर्मळ परिणमनपूर्वक ज आत्मशक्तिओनी प्रतीत थाय छे.
पर्यायमां एकली मलिनता रहीने निर्मळशक्तिनी साची प्रतीत थई शकती नथी. अज्ञानरूप
रहीने ज्ञानशक्तिनी प्रतीत न थाय, पण ज्ञानरूप थईने ज ज्ञानशक्तिनी प्रतीत थाय छे;
एकला दुःखरूप रहीने सुखशक्तिनी प्रतीत थती नथी पण सुखनी अनुभूतिपूर्वक
सुखशक्तिनी प्रतीत थाय छे. ए रीते आत्मगुणोमां तद्रूप परिणमीने ज गुणनी प्रतीत थाय
छे, अर्थात् शुद्ध परिणति वडे ज आखो शुद्धात्मा प्रतीतमां आवे छे; एकला विकारमां तद्रूप
रहीने शुद्धात्मानी के तेनी शक्तिनी प्रतीत थई शके नहि.
(१८) “बळनुं झाड”
आत्मा स्ववीर्यथी पोताना अनंत गुणोनी निर्मळ पर्यायोने उपजावे छे. अनंता
गुणोनी निर्मळ शाखाने उपजावे एवां बळनुं झाड आत्मा छे. चैतन्यनुं वीर्यवृक्ष
केवळज्ञान–केवळदर्शन–अनंतसुख–अनंतवीर्य वगेरे उत्तम फळोने नीपजावे छे. चैतन्यवीर्यनुं
वृक्ष अनंतगुणोनी निर्मळशाखा–पर्यायोने स्वाधीनपणे रचे छे–एवुं एनुं सामर्थ्य छे. एनी
स्वसन्मुख प्रतीत करतां मोक्षवीर्य प्रगटे छे एटले के निजसामर्थ्यथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र पर्यायोनी रचना थाय छे. जीवनो आवो स्वभाव छे.
(१९) निर्मळशक्तिसंपन्न आत्मा ते ज खरो आत्मा
अहीं विशेषता ए बताववी छे के निर्मळ पर्यायोनी रचनामां ज आत्मशक्तिओ कारण–