Atmadharma magazine - Ank 257
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: आत्मधर्म :१७:
जगतना कोई परद्रव्यमां सुखनी कल्पना तेने थती नथी. एक स्वद्रव्य सिवाय बीजे
क््यांय तेने उपादेयबुद्धि थती नथी. परविषयोमां सुख माने ते तेना कारणरूप शुभरागमां
पण सुख मान्या विना रहे नहीं. ए ज रीते जे जीव शुभरागने धर्म के उपादेय माने ते
जीव ते रागना फळमां पण सुख माने छे–एटले रागमां सुख माननार (रागने धर्मनुं
साधन माननार) जीवने विषयोनी आसक्ति खरेखर कदी मटती नथी. रागमां जे
आसक्त छे ते विषयोमां ज आसक्त छे. राग अने विषयो बंने एक ज जातना छे.
चैतन्यस्वभाव ए बंनेथी जुदी जातनो छे, आत्मानुं सुख रागथी ने विषयोथी बंनेथी
पार छे. आवा चैतन्यसुखने जे जाणे छे ते कदी रागमां के विषयोमां रत थता नथी.
ज्ञानकला जिसके घट जागी ते जगमांही सहज वैरागी;
ज्ञान मगन विषयसुखमांथी यह विपरीत, संभवे नांही.
ज्ञान थाय, आत्माना सुखनो अनुभव थाय अने विषयसुखोमां मग्नता पण
रहे ए बंने एकबीजाथी विपरीत छे, ज्ञानीने विषयसुखमां मग्नता होय एवुं
विपरीतपणुं कदी संभवतुं नथी. ए तो जगतमां सहज वैरागी छे. ज्ञानकळा जागी त्यां
विषयोमां के रागमां अत्यंत उदासीनता थई जाय छे. अरे, चैतन्यसुखने जे नथी
जाणतो ते विषयोनी अत्यंत तृष्णाथी अनेक पापो करे छे, ने चार गतिनां दुःखो
भोगवे छे. चैतन्यने भूलीने शुभभाव करतो होय ने तेमां सुख मानतो होय ते जीव
पण खरेखर विषयोमां ज मग्न छे. अने सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा विषयोथी विमुख थईने
चैतन्यस्वभावना सुखने वेदे छे. सम्यग्दर्शन थयुं त्यां ज विषयसुखोथी परांग्मुखता
थई ने अतीन्द्रिय सुखनो अनुभव शरू थई गयो. अंतरात्मा, अंतरमां चैतन्यसुखनो
स्वाद चाखीने बहिरविषयोथी विमुख थाय छे. अने बहिरात्मा बहारना विषयमां सुख
मानीने चैतन्य स्वभावथी परांग्मुख वर्ते छे, अने एकला दुःखोने ज वेदे छे भाई
विषयो तो पाप छे, पापमांथी सुख केम मळे? अरे, ज्यां अनंत सुख भरेलुं छे ने ज्यां
दुःख लेशमात्र नथी एवा आत्मामां तुं प्रेम केम नथी करतो? अने ज्यां एकलुं दुःख ज
छे ने सुखनो अंश पण नथी एवा बाह्य विषयोमां तुं प्रेम केम करे छे? अरे जीव!
बाह्यविषयोना सेवनमां तारो अनंत अनंत काळ वीती गयो छतां सुखनी ठंडी हवा
पण तने न मळी माटे जराक विचार.....ए तरफथी पाछो वळ ने ज्ञानचक्षुथी विवेक कर
एकवार आत्मा तरफ जो. आत्मामां सुख छे तेने देख, श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
‘अनंत सुख नाम दुःख, त्यां रही न मित्रता,
अनंत दुःख नाम सुख, प्रेम त्यां विचित्रता!
उघाड न्यायनेत्रने नीहाळ रे नीहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारे ते प्रवृत्ति बाळ तुं.’