Atmadharma magazine - Ank 257
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म :फागण:
वि....वि....ध....व....च....ना....मृ....त
आत्मधर्मनो चालु विभाग: लेखांक–६
(विविध वचनामृतनो आ विभाग प्रवचनोमांथी, शास्त्रोमांथी
तेमज रात्रिचर्चा वगेरे प्रसंगो उपरथी तैयार करवामां आवे छे)
(१२८) क्षेत्र एक; भावमां मोटो फेर
ज्यां अनंता सिद्धो ते ज ठेकाणे अनंता निगोद.
सिद्धोने अनंत उत्कृष्टसुख....निगोदने अनंत उत्कृष्टदुःख.
सिद्धोनुं सुख अतीन्द्रिय छे, ईन्द्रियज्ञान वडे तेनो ख्याल न
आवे.
निगोदनुं दुःख पण अतीन्द्रिय छे, ईन्द्रियज्ञानवडे तेनो ख्याल न
आवे.
सिद्धोने बहारना कोई संयोग सुखनुं कारण नथी.
निगोदने पण बहारना कोई संयोगनुं दुःख नथी.
सिद्धो पोताना भावथी ज सुखी छे.
निगोद पोताना भावथी ज दुःखी छे.
एक ज जग्याए रहेला बे जीवो: पण बंनेना भावमां केटलो
फेर!
(१२९) सिद्धपदनो सोनेरी अवसर
अरे जीव! मनुष्यजीवननो सोनेरी अवसर तने मळ्‌यो छे, तो
तेमां सिद्धपदनुं साधन करीने तेने सफळ बनाव. सिद्धपदनी प्राप्तिनो आ
सोनेरी अवसर छे–एम समजीने प्रत्येक क्षणनो सदुपयोग कर.
(१३०) पांच पगथिया...पंचम गतिना
(१) ज्ञानी पासेथी साचा मार्गनुं श्रवण करे.
(२) आत्महित साधवानी जिज्ञासा जगाडे.
(३) आत्महितना मार्गनो बुद्धिवडे निर्णय करे.
(४) आत्महित साधवानी अंतरथी खरी लगनी लगाडे,
(प) तेने सतत अंतरप्रयत्नवडे अल्पकाळमां स्वानुभव थाय,
स्वानुभव वडे सिद्धपद पमाय.