Atmadharma magazine - Ank 257
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २४: आत्मधर्म :फागण:
मृत्युलोकनुं हरणियुं पण भगवाननी स्तुति सांभळवा माटे ऊडीने चंद्रलोकमां
मानतुंगस्वामीए आ भक्तामर–स्त्रोतमां भक्तिनां पूर वहाव्या छे. धर्मनी
प्रभो! आपे तो मोक्षनो ज उपदेश आप्यो छे. भगवाननो खरो भक्त मोक्ष
सिवाय बीजा वैभवने ईच्छे नहि; बहारना वैभवनी अभिलाषाथी भगवाननुं सेवन
करे तेने अमे भगवाननो खरो भक्त कहेता नथी. रागने ईच्छे ते वीतरागनो भक्त
केम कहेवाय? अहो, आपनी सर्वज्ञताने लक्षमां लईने जेनुं चित्त आपनी भक्तिमां
लीन थयुं तेने जगतनो भय होय नहि. तारी भक्ति करतां मारा सर्वज्ञ स्वभावनुं मने
भान थयुं ने ते स्वभावनुं शरण लीधुं त्यां हे नाथ! क्रूर कर्मना उदयरूप सिंह के
प्रतिकूळताना संयोग तेनी दोडमां अमे दबाई जवाना नथी, कर्मरूपी सिंहनो पंजो हवे
अमारा उपर चलावानो नथी. कोई कर्ममां के कोई संयोगमां एवी ताकात नथी के मारी
भक्तिने तोडी शके. प्रभो! सर्वज्ञस्वभावनी सन्मुख थईने आपनी भक्ति करतां करतां
अमेय आपना जेवा थईशुं.