: वैशाख : आत्मधर्म : ३ :
१९. एवो नियम छे के सम्यक्त्वनी उत्पत्तिना काळे तो निर्विकल्प–अनुभूति होय ज.
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२०. सम्यग्दर्शन ते उपयोग नथी, सम्यग्दर्शन ते तो आत्मप्रतीति छे.
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२१. बहारमां उपयोग वखते पण धर्मीने शुद्धात्मश्रद्धान एवुं ने एवुं वर्ततुं होय छे.
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२२. समकिती–महात्मानी स्थिति एवी अलौकिक छे के राग वखतेय रागथी पार एवी
दशा तेमने वर्ती रही छे.
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२३ शुभभाव वखते सम्यक्त्व होय छे पण शुभभाववडे सम्यक्त्व थतुं नथी.
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२४ शुभ वखते जेने शुभथी रहित एवा शुद्धात्मानी प्रतीत वर्ते छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे.
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२प धर्मात्मानी अंतरनी गुणदशाने जे ओळखे छे तेने पोतामां स्वभाव ने परभावना
भेदविचारनी स्फूरणा जागे छे.
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२६ पोताना देव–गुरु–धर्मनी भक्ति–प्रभावनाना प्रसंगमां धर्मी उल्लसी जाय, तेमां
लोभ करे नहि, पाछी पानी करे नहि.
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२७ धर्मीना उपयोगनुं अनुसंधान निजस्वरूप उपर छे, निजस्वरूपना निशानने ते
चूकता नथी.
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२८ स्वरूपना चिंतनमां आनंदतरंग उल्लसे छे, रोमांच थाय छे ने पछी तुरत ज
विकल्प तूटीने स्वानुभव थाय छे.
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२९ निर्विकल्पताना स्वानुभवना परम आनंदनो भोगवटो होय छे पण तेनो विकल्प
नथी.
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३० स्वरूपना तीव्र रसथी वारंवार तेना चिंतनमां उपयोग जोडवो ते स्वानुभवनो
प्रयत्न छे.