: ४ : आत्मधर्म : वैशाख :
३१ आत्मस्वरूपना निर्णयमां ज जेनी भूल होय तेने तेनुं खरूं चिंतन के स्वानुभव
थाय नहि.
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३२ जेनुं ध्यान करवानुं छे तेने प्रथम बराबर ओळखवुं जोईए; ओळख्या वगर ध्यान
कोनुं?
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३३ अहा, निरालंबी चैतन्यवस्तु! एनुं माहात्म्य आव्या वगर ए जागे एवी नथी.
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३४ निजस्वरूपमां अचिंत्य महिमा करतां बीजे क््यांय वधु महिमा होय तेनो उपयोग
स्वरूपमां लागे नहि.
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३प सहज शुद्धात्मानी जेटली अनुभूति तेटलो ज हुं, मारा स्वसंवेदनमां आवुं छुं, ए ज
हुं,– आत्म धर्मी अनुभवे छे.
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३६ चैतन्यनी अनुभूतिनो उत्कृष्ट रस ज्यां घूंटाय त्यां विकल्प तूटे ने आनंदतरंग
उल्लसे.
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३७ धर्मीने परभावो अनुभवथी बहार रही गया, ने निर्मळ पर्याय अनुभूतिमां भेगी
भळी गई.
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३८ अहा, आ अनुभूति!!–जेना फळमां संसारदुःखनो नाश, ने अपूर्व सिद्धसुखनी
प्राप्ति,–एना महिमानी शी वात!
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३९ परम वीतराग जैनधर्मना अनादि प्रवाहमां तीर्थंकरो अने संतोए आत्महितना
हेतुभूत अध्यात्मनो प्रवाह वहेतो राख्यो छे.
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४० तीर्थंकरो अने सन्तोनो ए अध्यात्मसन्देश झीलीने अनेक मुमुक्षु जीवो पावन थाय छे.
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४१ वीतरागी अध्यात्मरसना पानथी संसारना संतप्त जीवो परम तृप्ति अनुभवे छे.
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