Atmadharma magazine - Ank 259
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : आत्मधर्म : २९ :
कई रीते अनुभवो?–के शरीरादि समस्त परद्रव्योमां मोहथी रहित थईने शुद्ध–
आत्माने अनुभवो. आवा अनुभव वगर चार गतिना घोर दुःखमां अनंतकाळ वीत्यो,
पण हवे तो आवो अवसर पामीने शुद्धआत्माने अनुभवमां लईने तेना आनंदनो
स्वाद ल्यो. पोते स्वाद लईने बीजाने तेवो स्वाद लेवानुं कहे छे. पोते जाण्युं होय तो
बीजाने कहे ने! ‘जगत अनुभवो’ एनो अर्थ के अमे तो अनुभव कर्यो छे, ने जगतमां
पण जे कोई जीवो सुख चाहता होय तेओ आवी वस्तुनो अनुभव करो.
शरीरादि परवस्तुने पोतानी मानीने ज्यांंसुधी मिथ्याभावे प्रवर्ते छे त्यांसुधी
एनाथी भिन्न शुद्धजीव वस्तुनो अनुभव थतो नथी. माटे कह्युं के ए मिथ्याबुद्धिरूप
मोहने छोडीने, शुद्धनयवडे आत्माने अनुभवमां ल्यो.
अरे जीव! तुं भूल्यो! जे तारुं स्वरूप तेने तें जाण्युं नहि, ने जे तारुं स्वरूप
नथी तेने तुं पोतानुं मानी बेठो. जे वस्तु तारे कामनी नथी एमां तुं मोह्यो; ने जे वस्तु
खरेखर तारे कामनी छे एवी स्ववस्तुनी सामे तें जोयुं नहि–आथी तुं अनादिथी दुःखी
थयो पण हवे तो शरीरादिने पर जाणीने, अंतरनी स्ववस्तुने देख, तेने अनुभवमां ले;
ए अनुभवमां ज परम सुख छे.
अहो, पोतानो जे स्वभाव पोतामां छे तेने अनुभववानी सीधी–सादी–स्पष्ट
वात छे. परद्रव्यो तो छूटा ज छे, ते परद्रव्यो साथेनी एकत्वबुद्धि तें करी छे,
एकत्वबुद्धिने तुं छोड तो स्वानुभवने योग्य था. परमां एकत्व छोडीने ज्ञाने ज्यां स्वमां
एकत्व कर्युं त्यारे स्वानुभव थयो.
स्वानुभव माटे छोडवानुं शुं?
के परद्रव्य मारुं एवी एकताबुद्धिने छोडवी.
स्वानुभवमां अंगीकार करवानुं शुं?
पोतानी चैतन्यवस्तु जेवी छे तेवी ग्रहण करवी, एटले के श्रद्धा–ज्ञानमां लेवी.
भाई, तारे स्वानुभव माटे जे छोडवानुं छे ते कांई बहारमां नथी, तारी
पर्यायमां ज छे. तारी पर्यायमां परनी साथेनी एकत्वबुद्धिरूप जे मिथ्याभाव ते ज तारे
छोडवानो छे, तेने छोडतां आत्मा स्वानुभवने लायक थाय छे. अथवा स्वानुभव थयो
त्यां ते मिथ्याबुद्धि छूटी जाय छे.–आम अस्ति–नास्ति छे. शुद्धस्वभावना अनुभवमां
मिथ्याबुद्धिनो अभाव छे, ते अनुभवमां सर्व प्रकारे शुद्धआत्मा ज प्रकाशमान छे. आवो
आत्मा ज्यांं