जाणी ल्ये तो ते ज्ञान पुरुं नहि.
लक्षमां आवे तो ज आ वात बेसे तेवी छे. विकारमां अटकेलुं ज्ञान मर्यादित छे ते
अनंतने नथी पहोंची शकतुं, पण विकार वगरना ज्ञानमां तो अचिंत्य बेहद ताकात छे,
ते अनादि–अनंत–काळने, अनंतानंत आकाश प्रदेशोने ए बधायने साक्षात् जाणी ल्ये
छे? अरे, एनाथी तो अनंतगणुं सामर्थ्य एनामां खील्युं छे.
छे, ने तेने वृक्ष–बीजनी परंपरानो अंत आवी जाय छे, एकवार जे बीज बळी गयुं ते
फरीने कदी उगतुं नथी. तेम जगतमां सामान्यपणे विकार ने कर्मनी परंपरा अनंत छे,
तेनो जगतमांथी कदी अभाव थवानो नथी, पण तेथी करीने कांई बधाय जीवोने एवी
विकारी परंपरा चाल्या ज करे एवो नियम नथी; घणाय जीवो पुरुषार्थ वडे विकारनी
परंपरा तोडीने सिद्धपदने साधे छे, तेमने विकारनी परंपरानो अंत आवी जाय छे. जेणे
एकवार विकारना बीजने बाळी नाख्युं तेने फरीने कदी विकार थतो नथी. आ रीते
विकारनी परंपरा तूटी शके छे.
परंपरानो अंत आवी जाय छे. तेम विकारनी परंपरा अनादिनी होवा छतां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे धर्मी जीवने तेनो अंत आवी जाय छे. जेम मोक्षमार्ग
अनादिथी न होवा छतां तेनी नवी शरूआत थई शके छे; तेम विकार अनादिनो
होवा छतां तेनो अंत थई शके छे.