: ६६ : आत्मधर्म : वैशाख :
एह परमपद प्राप्तिनुं कर्युं ध्यान में,
गजा वगरने हाल मनोरथरूप जो.
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो,
प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो...अपूर्व
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जुओ, आत्मानुं भान तो थयुं छे पण हजी परमात्मदशा आ देहे प्राप्त थई
नथी. छतां स्वानुभवना जोरे अल्पकाळमां परमात्मपदनी प्राप्तिना कोलकरार करीने
जाय छे. आ देह छोडयो, हवे फरीने आवो देह नहि मळे.
आत्मानी तो जात फरी जशे, ने फरीने आ प्रकारनो देह पण नहि मळे फरीने
एकाद भव हशे ने शरीर मळशे तो ते आराधकभाव सहित जुदी जातनुं हशे, आत्मानी
दशा तो अपूर्व थई त्यां देहमां पण अपूर्वता थई जाय छे, केमके आराधकभाव
सहितना पुण्यनुं निमित्त पूर्वे कदी नहोतुं; चैतन्यना भानपूर्वक तेनी आराधनामां
रमतां रमतां जेणे देह छोडयो तेना अनंतकाळना असमाधिमरण छूटी गया, ने
अनुभवनी खुमारी एना चित्तने बीजे
क्यांय लागवा देती नथी. स्वानुभवना
शांतरसथी ते तृप्ततृप्त छे. चैतन्यना
आनंदनी मस्तीमां एवा मस्त छे के हवे
बीजुं कांई करवानुं रह्युं नथी.
हुं ज ज्ञान–दर्शन–चारित्र छुं, हुं ज मोक्ष
छुं, हुं ज सुख छुं, मारो स्वभाव वृद्धिगत
ज छे, परभावनो मारामां प्रवेश नथी. हुं
मारा चैतन्य विलास–स्वरूप छुं चैतन्यमां
बीजा कोईनी चिन्ता नथी.–आम धर्मी
जीव परथी भिन्न पोताना एकत्वस्वरूपने
चिंतवे छे. एकत्व चैतन्यना चिंतनमां
परम सुख छे.