JUNE : 1965 : वर्ष २२: अंक आठमो
आत्मार्थीने आत्मानी अप्राप्ति
शोभे नहि
(आत्मप्राप्तिना कोलकरार) (वै. सुद बीज)
भर्या सरोवर पासे जाय अने पाणी पीधा वगर
तरस्यो रहे–ए ते कांई शोभे? न शोभे; पाणी पीने तृप्त
थाय ए ज शोभे. तेम आनंदनुं भर्युं सरोवर आ चैतन्य
भगवान आत्मा, तेनी सन्मुख जईने अंतरमां
अनुभवनो अभ्यास करे, अने अनुभवप्राप्ति न थाय–
ए ते कांई शोभे? अप्राप्ति न शोभे; पण स्वानुभवनी
प्राप्ति थाय, थाय ने थायज! –ते ज शोभे छे. अंतर
स्वभावनी सन्मुख जाय....ने तेना अनुभवनी अप्राप्ति
रहे–ए ते शुं शोभे छे? ना; भगवान चैतन्य पासे जाय
ने खाली हाथे पाछो आवे–ए शोभे ज नहि, एटले एम
बने ज नहि. सारा उत्तम राजा पासे गयेलो माणस पण
खाली हाथे पाछो न फरे, तो जगतनो कोलाहल छोडीने
जे जीव आ चैतन्यस्वभाव पासे आव्यो ने तेना
अनुभवमां सततपणे वारंवार अभ्यास करे छे ते
स्वानुभव वगर पाछो न फरे, तेने स्वानुभवनी प्राप्ति
थाय ज.
–आवा आत्मप्राप्तिना कोलकरार संतोए
समयसारमां कर्या छे.