Atmadharma magazine - Ank 260
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : जेठ :
शुद्धजीव अने अजीवनी
स्पष्ट वहेंचणी
(कलशटीका–प्रवचन: कलश ३७)
राजकोट शहेरमां जिनेन्द्रभगवंतोनी
मंगलप्रतिष्ठा करीने अने एक मास सुधी कलश
टीकाना प्रवचनोमां अध्यात्मरसनी धारा
वहेवडावीने वैशाख सुद तेरसे पू. गुरुदेव सोनगढ
पधार्या, सोनगढनी समग्र जनताए उमंगभर्युं
स्वागत कर्युं,; ने कलशटीकाना प्रवचनोद्वारा
अध्यात्मरसना धोध वहेवा शरू थया, तथा
भावनानुं घोलन शरू थयुं. विहार वखते ३७ कलश
सुधी वंचायेल त्यांथी अनुसंधान करीने प्रवचन शरू
थाय छे.
शुद्ध जीवमां जे नथी ते अजीव छे. ते अजीव खरेखर जीवना स्वभावथी
भिन्न छे; एटले शुद्ध जीव ते ज खरेखर जीव छे. वर्णादिक भावो के रागादिक भावो
ते खरेखर जीवथी भिन्न, अजीव छे. शुद्ध चेतन्यद्रव्यथी भिन्नपणे विद्यमान एवा
अशुद्ध विभाव परिणामो जीवस्वरूपथी नीराळा ज छे. जड कर्म के शरीर तो मूर्त
अने भिन्न छे, पण अंदरनी अरूपी विकारी लागणी, जे चेतन जेवी देखाय छे ने
जीव साथे संबंधवाळी छे ते विकारी लागणीओ पण शुद्ध स्वरूपने अनुभवतां
आत्माथी भिन्न ज छे. जेवुं जड परद्रव्य छे तेवुं ए विकारभाव पण परद्रव्य ज छे.
स्वद्रव्य तो शुद्धचेतन्यमय ज छे.
अहा, जुओ आ स्वद्रव्यने ने परद्रव्यनी वहेंचणी, अंतरना स्वानुभवथी आवी
वहेचणी करवी ते धर्म छे. शरीर अने कर्म तो सीधा जड छे, ने रागादि परिणामो जीव