: ३० : आत्मधर्म : अषाड :
(२९) प्र:– ज्ञानीनुं ज्ञान स्वने स्व ने परने पर जाणे छे, छतां तेनो
ज्ञानउपयोग स्वमां टकी शकतो नथी ने पर तरफ ज्ञाननो उपयोग जाय छे तो ते
ज्ञाननो दोष खरो के नहि?
उ:– परमां उपयोग वखतेय ज्ञानीने ज्ञाननुं सम्यकपणुं तो खसतुं नथी, ने
मिथ्यापणुं थतुं नथी तेथी ते अपेक्षाए तेना ज्ञानमां दोष नथी; पण ज्ञान हजी
केवळज्ञानरूप नथी परिणमतुं ते ज्ञाननो दोष छे; ज्ञाननो स्वभाव केवळज्ञानरूप
थवानो छे, ज्यां सुधी केवळज्ञानरूपे न परिणमे त्यांसुधी ज्ञान सदोष छे–आवरणवाळुं
छे–मिथ्या नथी छतां दोषित तो छे. उपयोग भले स्वमां हो त्यारे पण पूरुं
केवळज्ञानभावे नथी परिणम्युं ते तेनो दोष छे. आम छतां, ते वखते जे राग छे ते कांई
ज्ञानकृत नथी, राग तो चारित्रनो दोष छे.
सर्व धर्मनुं मूळीयुं
ज्ञान अने चारित्रनुं बीज सम्यग्दर्शन ज छे,
यम अने प्रशमभावनुं जीवन सम्यग्दर्शन ज छे,
अने तप तथा स्वाध्यायनो आधार पण
सम्यग्दर्शन ज छे. एम आचार्योए कह्युं छे.
(ज्ञानार्णव अ. ६ गा. प४)
प्रौढ जैन शिक्षणवर्ग
(मात्र भाईओ माटे)
सोनगढमां दर वर्षनी माफक प्रौढवयना
भाईओ माटेनो जैनशिक्षणवर्ग श्रावण सुद छठ्ठ
थी श्रावण वद नामे (ता. २–८–६प थी २१–८–
६प) सुधी चालशे. तो जे भाईओने वर्गमां
आववा ईच्छा होय तेमणे जैन स्वाध्याय मंदिर
ट्रस्ट–सोनगढ, ने सूचना मोकली देवी.
खास नोंध: आ शिक्षणवर्ग मात्र भाईओने
माटे ज छे, बहेनोए शिक्षणवर्गमां आववानुं
नथी.