Atmadharma magazine - Ank 261
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : आत्मधर्म : २९ :
(२६) प्र: सम्यक्त्वनुं आत्मभूत लक्षण शुं?
उ: स्व–परनुं यथार्थ भेदज्ञान सदाय सम्यक्त्वनी साथे ज होय छे अने ए बंने
अनुभूति ते सम्यक्त्वना सद्भावने प्रसिद्ध जरूर करे छे. पण अनुभूति न होय
त्यारेय समकितीने सम्यग्दर्शन होय छे, माटे अनुभूतिने सम्यक्त्वनुं लक्षण कही शकातुं
नथी. लक्षण एवुं होवुं जोईए के लक्ष्यनी साथे सदैव, अने ज्यां लक्षण न होय त्यां
लक्ष्य पण न होय.
(२७) प्र:– स्व–परप्रकाशक ज्ञानने प्रमाण कह्युं छे, ते कई रीते? छद्मस्थने तो
उ:– प्रमाणने स्वपरप्रकाशक कह्युं छे त्यां कांई स्व अने पर बंनेमां एक साथे
उपयोग होवानी वात नथी, पण जे ज्ञाने स्वने स्वपणे ने परने परपणे जाण्युं छे ते
सम्यग्ज्ञान प्रमाण छे–एम तेनुं स्व–परप्रकाशकपणुं समजवुं. अवधिमनःपर्ययनो
उपयोग तो परमां ज होय छे, छतां ते पण स्वने स्वपणे ने परने परपणे जाणे छे,
तेथी प्रमाण छे. छद्मस्थने उपयोग तो स्वमां होय त्यारे परमां न होय, ने परमां होय
त्यारे स्वमां न होय, छतां प्रमाणरूप सम्यग्ज्ञान तो ज्ञानीने सदैव वर्ते छे परने जाणती
वखतेय ‘हुं ज्ञान छुं’ एवुं आत्मभान खसतुं नथी, ए ज ज्ञाननी प्रमाणता छे.
(२८) प्र:– दर्शनउपयोगमां शुभ ने अशुभ एवा भेद पडे?
उ:– ना; शुभ ने अशुभ एवा भेद दर्शनउपयोगमां के ज्ञानउपयोगमां नथी, ए
तो चारित्रना आचरणरूप उपयोगना भेद छे. चारित्रना आचरणमां शुभ, अशुभ ने
शुद्ध– एवा त्रण प्रकार छे, तेने शुभ–अशुभ के शुद्ध उपयोग कहेवाय छे.