: ३२ : आत्मधर्म : अषाड :
प्रभु तारी प्रभुता!
एकवार हा तो; पाड!
हे जीव! हे प्रभु! तुं कोण छो, तेनो कदी विचार
कर्यो छे? कयुं तारुं रहेठाण अने कयुं तारुं कार्य तेनी
तने खबर छे? प्रभु! विचार तो खरो के तुं क््यां छे
अने आ बधुं शुं छे? तने केम शांति नथी?
प्रभु! तुं सिद्ध छो, स्वतंत्र छो, परिपूर्ण छो,
वीतराग छो. पण तने तारा स्वरूपनी खबर नथी
तेथी ज तने शांति नथी. भाई! खरेखर तुं घर
भूल्यो छो, भूलो पड्यो छो, पारका घरने तुं तारुं
रहेठाण मानी बेठो; पण बापु! एम अशांतिना अंत
नहीं आवे!
भगवान! शांति तो तारा स्वघरमां ज भरी
छे. भाई! एकवार बधायनुं लक्ष छोडीने तारा
स्वघरमां तो जो! तुं प्रभु छो, तुं सिद्ध छो, प्रभु! तुं
तारा स्वघरने जो, परमां न जो. परमां लक्ष करी
करीने तो तुं अनादिथी भ्रमण करी रह्यो छो, हवे
तारा अंतरस्वरूप तरफ नजर तो कर! एकवार तो
अंदर जो! अंदर परम आनंदना अनंता खजाना
भर्या छे, तेने संभाळ तो खरो! एकवार डोकियुं कर
तो तने तारा स्वभावना कोई अपूर्व परम सहज
सुखनो अनुभव थशे.
अनंता ज्ञानीओ कहे छे के ‘तुं प्रभु छो’
प्रभु! तारा प्रभुत्वनी एकवार हा तो; पाड!