: १२ : आत्मधर्म : आसो :
परमात्मतत्त्वनी भावनानुं फळ
अने तेनी भावनानुं प्रोत्साहन
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परमात्मप्रकाश एटले शुद्ध परम–
आत्मतत्त्वनी भावनानुं शांत झरणुं...जेनी भावना
परम आनंद आपे....जेनी भावनाथी सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र पमाय....जेनी भावनाथी सिद्धपद
भावनानुं फळ बतावीने शिष्यजनोने तेमां
प्रोत्साहित करे छे.
(भादरवा वद छठ्ठे परमात्मप्रकाशनी पूर्णता प्रसंगनुं भाववाही प्रवचन)
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श्री योगन्दुदेवे परमात्मप्रकाशमां देहादिथी भिन्न परमात्मस्वरूपनुं वर्णन करीने,
वारंवार शुद्ध आत्मतत्त्वनी भावनानुं घोलन कर्युं. हवे छेल्ली गाथामां, आवा
परमात्म– तत्त्वनी भावनानुं उत्तम फळ बतावीने शिष्यजनोने तेनुं प्रोत्साहन आपे
छे.:–
(स्रग्धरा: क््यारे ए मानस्तंभे.....ए राग)
जं तत्तं णाणरूवं परम मुणिगणा णिच्च झायंति चिते
जं तत्तं देहचत्तं णिवसइ भुवणे सव्व देहीण देहे।
जं तत्तं दिव्वदेहं तिहुवणगुरुगं सिज्झए संतजीवे
तं तत्तं जस्स सुद्धं फुरइ णियमणे पावए सो हि सिद्धि।।२१३।।
अहो, अनंत आनंदनो भंडार जेमां भर्यो छे एवुं आ चैतन्य परम तत्त्व, ते
ध्यानवडे जेना अंतरमां स्फूरायमान थाय छे ते जीव मोक्षरूप परम आनंदने पामे छे.
परम भावना करवा योग्य आ तत्त्व केवुं छे? के जे तत्त्व ज्ञानरूप छे, मुनिवरोनो समूह
आराधे छे; वळी जे तत्त्व देहथी छूटुं छे, लोकमां बधा देहीना देहमां जे तत्त्व वसी रह्युं
छे, दरेक आत्मा शरीरथी भिन्न आवा परम तत्त्वरूप छे; तारुं आवुं परम