: आसो : आत्मधर्म : ११ :
भिन्न अनुभवाय छे. एटले आवा ध्यान वखते तो श्रावकने पण मुनिसमान गण्यो छे.
ए ध्यानमां ज्ञानादिनी निर्मळता पण वधती जाय छे, परिणामनी स्थिरता पण वधती
जाय छे.
ज्ञानी संसारमां गृहस्थपणामां रह्या होय, राग–द्वेष क्रोधादि कलेशपरिणाम
अमुक थता होय, पण एने एनी लाळ लंबाती नथी; संसारना गमे तेवा कलेशप्रसंगो
के प्रतिकूळताना प्रसंगो आवे, पण ज्यां चैतन्यना ध्याननी स्फूरणा थई त्यां ते बधाय
कलेश क््यांय भागी जाय छे; गमे तेवा प्रसंगमांय एना श्रद्धा–ज्ञान घेराई जता नथी.
ज्यां चिदानंद–हंसलानुं स्मरण कर्युं त्यां ज दुनियाना बधा कलेशो दूर भागी जाय छे;
तो ए चैतन्यना अनुभवमां तो कलेश केवो? एमां तो एकलो आनंद छे....एकली
आनंदनी ज धारा वहे छे. माटे कहे छे के अरे जीवो! आ चैतन्यस्वरूपना चिंतनमां
कलेश तो जरापण नथी ने तेनुं फळ महान छे, महान सुखनी तेना चिंतनमां प्राप्ति थाय
छे, तो एने केम ध्यानमां चिंतवता नथी? ने केम बहार ज उपयोगने भमावो छे?
ज्ञानीने बीजुं बधुं भले देखाय पण अंदर चैतन्यनी जडीबुट्टी हाथमां राखी छे.
संसारना झेरने उतारी नाखनारी आ जडीबुट्टी सूंघतां संसारना एना थाक क्षणभरमां
ऊतरी जाय छे.
जीवे शुद्धात्माना चिंतननो अभ्यास करवो जोईए. जेने चैतन्यना स्वानुभवनो
रंग लागे एने संसारनो रंग ऊतरी जाय. भाई, तुं अशुभ, ने शुभ बंनेथी दूर था
त्यारे शुद्धात्मानुं चिंतन थशे. जेने हजी पापना तीव्र कषायोनी पण निवृत्ति नथी, देव–
गुरुनी भक्ति, धर्मात्मानुं बहुमान, साधर्मीओनो प्रेम वगेरे अत्यंत मंदकषायनी
भूमिकामां पण जे नथी आव्यो, ते अकषाय चैतन्यनुं निर्विकल्पध्यान क््यांथी करशे?
पहेलां बधाय कषायनो (शुभ–अशुभनो) रंग अंदरथी ऊडी जाय....ज्यां एनो रंग
ऊडी जाय त्यां एनी अत्यंत मंदता तो सहेजे थई ज जाय, ने पछी चैतन्यनो रंग
चडतां तेनी अनुभूति प्रगटे. बाकी परिणामने एकदम शान्त कर्या वगर एमने एम
अनुभव करवा मांगे तो थाय नहीं. अहा, अनुभवी जीवनी अंदरनी दशा कोई ओर
होय छे!
आ प्रमाणे निर्विकल्प अनुभवनुं स्वरूप घणा प्रकारे स्पष्ट कर्युं. सम्यग्द्रष्टिने
चोथा गुणस्थाने पण आवो अनुभव थाय छे ए पण खास बताव्युं. आ रीते
सम्यक्त्वनी अने स्वानुभवनी अलौकिक चर्चा करी. जुओ, साधर्मीओ अरसपरस
सम्यग्दर्शननी ने स्वानुभवनी केवी सरस चर्चा करे ते आमां देखाय छे. धर्मात्मा
एकबीजाना संगमां होय ते अनुभवनी अलौकिक चर्चा करता होय छे. जेम बे वेपारी
भेगा थाय तो वेपारनी ने भावतालनी वातो करे, बे चोर भेगा थाय तो चोरीनी चर्चा
करे, तेम बे धर्मी भेगा थाय तो स्वानुभवनी वात करे. जेने जे वात प्रिय लागे तेनुं ज
ते घोलन करे छे, मुमुक्षुए स्वानुभवनुं स्वरूप समजीने सतत तेनो अभ्यास कर्तव्य छे.