Atmadharma magazine - Ank 264
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 17 of 41

background image
: १४ : आत्मधर्म : आसो :
भ्रमणा छे ने ते भ्रमणनुं कारण छे. ए भ्रमणा छोड....ने अमे देहथी भिन्न जे परमात्म
तत्त्व वारंवार बताव्युं तेने ओळखीने तेनी भावना कर. ते भावना भ्रमण टाळीने
सिद्धपदनुं कारण छे.
अहा, जेनी भावनानुं आवुं ईष्ट फळ, ते तत्त्वनी भावना कोण न भावे? सर्व
जीवोए सदाकाळ सर्व प्रकारे शुद्ध आत्मतत्त्वनी भावना करवा जेवी छे. ए ज सर्व
शास्त्रोनुं तात्पर्य छे.
केवळज्ञानने प्राप्त भगवाननो जय हो–एवा मंगलआशीर्वादरूप नमस्कारपूर्वक
शास्त्र समाप्त करे छे. –
(मालिनी)
परमपयगयाणं भासओ दिव्वकाओ मणसि मुणिवराणं मुक्खदो दिव्वजोओ।
विसयसुहरयाणं दुल्लहो जो हु लोए जयउ सिवसरुवो केवलो को वि बोहो।। २१४।।
संतो पोते आवा परमात्मपदने साधी रह्या छे, तेनी उत्कृष्ट भक्तिथी कहे छे के
अहो आवुं परमात्मपद जेमणे प्रगट कर्युं एवा परमात्मा जयवंत वर्तो....वृद्धिगत
होय.....एटले अमारे पण साधकभावनी वृद्धि थईने आवुं परमात्मपद प्रगट हो.
भगवाननो आत्मा तो स्वच्छ स्वपरप्रकाशी थई गयो ने तेमनो देह पण
परम– औदारिक एवो स्वच्छ दिव्य थई गयो के जेमां रोगादि न होय; हजारो सूर्य
जेवा तेजस्वी ए देहमां जोनारने पोताना आगला पाछला सात भव देखाय.
(भविष्यना भव होय तो देखाय) संतधर्मात्माओ अने मुनिवरो अंतरमां पोताना
आवा परमतत्त्व स्वरूपने ध्यानवडे देखे छे. परमौदारिक देहथी पण आत्मा भिन्न छे.
आवुं परमचैतन्य तत्त्व मोक्षनुं देनार छे. निमित्तपणे अर्हंतपरमात्मा पण मोक्षना
देनार छे. केवल ज्ञानस्वभावी आ अतीन्द्रिय परमात्मपद, तेने ईंद्रियविषयोमां लुब्ध
जीवो पामी शकता नथी. ईंद्रियसुखो तो अतीन्द्रियसुखथी विपरीत छे, ए बंनेनी रुचि
एक साथे होई शके नहि. जगतना जीवो विषयोमां लुब्ध छे तेमने आ
परमात्मतत्त्वनी प्राप्ति दुर्लभ छे. अंतरमां ध्यानवडे जेओ आवा परमात्मपदने पाम्या
ते परमात्मानो जय हो.
परमात्मतत्त्व ते अंतर्मुख अवलोकननो विषय छे, ते बाह्यविषयो तरफना
वलणथी अनुभवमां आवे नहि. श्रीमद् राजचंद्रजी पण छेल्ले कहे छे के–
उपजे मोह विकल्पथी समस्त आ संसार,
अंर्तमुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.