तंत्री: जगजीवन बावचंद दोशी
वर्ष २२: अंक १२: वीर सं. २४९१ आसो: October 1965
एकलो जानेरे......
सर्वज्ञदेवे कहेला आनंददायक एवा अमृतपथरूप मोक्षमार्गमां स्थित
सम्यग्द्रष्टि कदाच एक ज होय तो ते एकलो पण शोभनीक अने प्रशंसनीक
छे. सम्यग्द्रष्टि भले कदाच बहारनी प्रतिकूळता होय तोपण अंदरमां एने
चैतन्यना आनंदनी लहेर छे; पूर्वकर्मनो प्रतिकूळ उदय तेने हलावी शकतो
नथी. प्रतिकूळताना उदय वच्चे पण सम्यग्द्रष्टि जीव मोक्षमार्गमां शोभे छे.
माटे कहे छे के हे जीव! भले पाप कर्मनो उदय होय तो पण तुं सम्यक्त्वनी
आराधनामां निश्चल रहे.....सम्यक्त्व वडे एकलो एकलो तारा स्वकार्यने
साध. पापकर्मनोउदय होय तेथी कांई सम्यक्त्वनी किंमत चाली जाय नहि,
उलटुं पापकर्म तो निर्जरतुं जाय छे. जगतमां ऊंधीद्रष्टिवाळा बीजा भले
साथ न आपे तोपण सम्यग्द्रष्टि एकलो एकलो मोक्षना मार्गमां
आनंदपूर्वक चाल्यो जाय छे. जेम जंगलमां वननो राजा सिंह एकलो पण
शोभे छे तेम संसारमां चैतन्यनो राजा सम्यग्द्रष्टि एकलो पण शोभे छे.
माटे हे जीव! जगतमां कोईनो साथ न होय तोपण सम्यग्दर्शन वडे
मोक्षमार्गमां एकलो एकलो चाल्यो जा.....
(आ विषयने लगतुं, सम्यक्त्वनी विरलता बताववुं ने तेनी आराधनानो
उत्साह जगाडतुं एक विस्तृत प्रवचन हवे पछीना अंकमां वांचशोजी.)
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