Atmadharma magazine - Ank 266-267
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २४९२ आत्मधर्म : ५५ :
पराधीनद्रष्टिथी क््यांथी छूटे?
ए ज रीते काळ वगर परिणमन न थाय–एम निमित्तथी कहेवाय; पण त्यां तो
काळद्रव्यनुं अस्तित्व बताववुं छे. परिणमन तो वस्तुना पोताना स्वभावथी ज
थाय छे.
धर्मास्ति वगर गति नहि,
अधर्मास्ति वगर स्थिति नहि,
काळ विना परिणमन नहि,
पुद्गल विना लोकयात्रा नहि,
अर्थात् संसार नहि,
ज्ञेय विना ज्ञान नहि,
त्यां अज्ञानी पराधीनद्रष्टिथी वस्तुस्वरूपने पराधीन माने छे. पण भाई! गति
करवानी ताकात कोनी? स्थिति करवानो स्वभाव कोनो? परिणमन करनार कोण?
संसार – मोक्षदशानो करनार कोण? ने जाणवानो स्वभाव कोनो? तुं संयोगने न जोतां
वस्तुना स्वभावने जो. वस्तुमां जे अलौकिक सामर्थ्य छे तेने तुं जाण.
जाणवानी ताकात ज्ञाननी पोतानी छे, ज्ञेयोमांथी कांई ते ताकात नथी आवती.
ज्ञेयोथी ज्ञान थतुं होय तो तो जेटला ज्ञेयो तेटलुं ज ज्ञानसामर्थ्य होवुं जोईए, परंतु
ज्ञानसामर्थ्य तो सर्वज्ञेयो करतांय अनंतगणुं छे. –एटले ते ज्ञानसामर्थ्य ज्ञेयना
अवलंबन वगर पोताना स्वभावथी ज छे. ज्ञेय खूट्यां पण ज्ञान न खूटयुं–आटली तो
एक समयनी पर्यायनी ताकात, –तो आखा ज्ञानगुणना दरियानुं तो शुं कहेवुं? ने एवा
अनंतगुणनो पिंड जे आखो आत्मा–एना अचिंत्यस्वभावनुं तो शुं कहेवुं? जेना एक
अंशमां पण बेहद ताकात–तो आखा सामर्थ्यनी शी वात!! आवा ज्ञाननुं पूजन कर,
तेनुं बहुमान कर...तारी चैतन्यलक्ष्मीना बेहद भंडार खूली जशे.
अहा, चैतन्यनी आ अचिंत्य ताकात पासे विकल्पनी किंमत शुं? विकल्प तो
क््यां सुधी पहोंची शके? बेहद शक्तिवाळो चैतन्यस्वभाव तो ज्ञाननी अनुभूतिमां ज
आवे तेवो छे.
जुओ, चैतन्यना सम्मेदशिखरनी आ यात्रा थाय छे! एकवार स्वभावनो उल्लास