प्राचीनकाळमां ज्ञान–वैराग्य ने भक्तिप्रेरक भजनोनो विशेष प्रचार हतो.... आजे
फिल्मीयुगमां एवा भजनो बहु ओछा जोवा–सांभळवा मळे छे. उपदेशप्रेरक प्राचीन
भजनोमांथी पसंद करीने आपणे अवारनवार अहीं आपता रहीशुं.
[अहो मारां नसीब जागे....ए राग]
अहो, यह उपदेशमांही खूब चित्र लगावना,
होयगा कल्यान तेरा सुख अनंत बढावना...(टेक)
रहित दूषन विश्व भूषन देव जिनपति ध्यावना;
गगनवत निर्मल अचल मुनि तिनहिं शिष नमावना...अहो...(१)
धर्म अनुकंपा–प्रधान, न जीव कोई सतावना;
सप्त तत्त्व परीक्षना करी हृदय श्रद्धा लावना...अहो...(२)
पुद्गलादिकतें पृथक् चैतन्य ब्रह्म लखावना,
या विधि सम्यक् विमल धारी शंकादि पंक बहावना...अहो...(३)
रूचे भव्यनको वचन ये शठनको न सुहावना,
चन्द्र लखि जिम कुमुद विकसे उपल नांहि विकसावना...अहो...(४)
‘भागचंद’ विभाव तजि, अनुभव स्वभावित भावना,
या शरण, न अन्य जगतारन्यमें कहुं पावना...अहो...(प)
आ भजनना रचनार कवि भागचंदजी अध्यात्मना अनुभवनी प्रेरणा सहित उपदेश
आपतां कहे छे के–अहो भव्य जीव! आ उपदेशमां तारुं चित्त बराबर लगाडजे. –जेथी तारुं
कल्याण थशे ने तने अनंतसुखनी प्राप्ति थशे; प्रथम तो, दूषणथी रहित ने जगतना
भूषणरूप एवा भगवान जिनेन्द्रदेवने ओळखीने तेमने ध्यावजे; आकाश जेवा निर्मळ–
अचल जे दिगंबर मुनि तेने ज शिश नमावजे; जेमां कोई जीवने सताववानुं नथी एवा
अनुकंपाप्रधान धर्मने (–जैनधर्मने) तुं मानजे; सात तत्त्वनी ओळखाण करीने हृदयमां तेने
श्रद्धा करजे; पुद्गलादिकथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणजे. आ विधिथी निर्मळ
सम्यक्त्व धारण करीने शंकादि दोषरूपी कादवने धोई नाखजे. आ वचनो भव्य जीवने तो
रुचिकार थशे, पण शठ–दुष्ट जीवने ते गमशे नहि; –जेम चन्द्रने जोतां फूल तो खीले छे पण
पथरा कांई विकसता नहि. हे जीव! तुं विभावोने तजीने स्वभावित–स्वभावरूप एवा
अनुभवने भावजे; आ संसारवनमां ए अनुभव ज शरण छे, बीजुं कांई शरण नथी.