Atmadharma magazine - Ank 268
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 29 of 55

background image
: २४ब : आत्मधर्म : माह : २४९२
बाकी रह्यो तेने पण ते पोतानुं परिणमन जाणे छे पण हवे तेनी मुख्यता
नथी, मुख्यता तो स्वभावनी थई गई छे. पहेलां अज्ञानदशामां
मिथ्यात्वादि परिणाम हता ते पण स्वद्रव्यना ज आश्रये हता; पण ज्यारे
नक्की कर्युं के मारा परिणाम मारा द्रव्यना ज आश्रये थाय छे–त्यारे ते
जीवने मिथ्यात्वपरिणाम रहे नहि, तेने तो सम्यक्त्वादिरूप परिणाम ज
होय. हवे जे राग– परिणमन साधकपर्यायमां बाकी रह्युं छे तेमां जो के
तेने एकत्वबुद्धि नथी छतां ते परिणमन पोतानुं छे–एम ते जाणे छे.
आवुं व्यवहारनुं ज्ञान ते काळे प्रयोजनवान छे. सम्यग्ज्ञान थाय त्यारे
निश्चय व्यवहारनुं स्वरूप यथार्थ जणाय, त्यारे द्रव्य–पर्यायनुं स्वरूप
जणाय, त्यारे कर्ताकर्मनुं स्वरूप जणाय, ने स्वद्रव्यना लक्षे मोक्षमार्गरूप
कार्य प्रगटे. तेनो कर्ता आत्मा पोते छे.
आ रीते आ २११ मा कळशमां आचार्यदेवे चार बोलथी स्पष्ट
करीने अलौकिक वस्तुस्वरूप समजाव्युं, तेना उपरनुं विवेचन पूरुं थयुं.
आत्मधर्मना विशाळ वांचक वर्गमांथी
मोटा भागना वडीलोनी एवी ईच्छा छे के, आ
लेखनी माफक मोटा अक्षरोमां आत्मधर्म
छपाय तो वांचवानी सुगमता रहे. तेमनी आ
व्याजबी सूचनाने अनुलक्षीने शक््यता मुजब
एक के बे फोर्म आवा टाईपमां आपीशुं.