: २८ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९२
चैतन्यवस्तु अचिंत्य महिमावंत, एनी पासे रागादि परभावो तो अवस्तु छे,–ए
अवस्तुनी रुचि कोण करे? एनो महिमा, एनां गुणगान कोण करे? सम्यग्द्रष्टि तो
पोताना शुद्धस्वरूपनी भक्ति करे छे. शुभराग अने साथे भूमिकायोग्य शुद्धपरिणति ते
ज्ञानीनो आचार छे, तेनुं नाम मिश्रव्यवहार छे. मिश्र एटले कंईक अशुद्धता ने जे
शुद्धता; तेमां जे अशुद्धअंश छे ते धर्मीने आस्रव–बंधनुं कारण छे ने जे शुद्धअंश छे ते
संवर–निर्जरानुं कारण छे.–आ रीते आस्रव–बंध ने संवर–निर्जरा ए चारे भावो
धर्मीने एक साथे वर्ते छे. अज्ञानीने मिश्रभाव नथी, एने तो एकली अशुद्धता छे;
सर्वज्ञने मिश्रभाव नथी, एमने एकली शुद्धता छे. मिश्रभाव साधकदशामां छे. तेमां
शुद्धपरिणतिअनुसार ते मोक्षमार्गने साधे छे.–एम जाणवुं.
अहा, धर्मात्मानी आ अध्यात्मकळा...अलौकिक छे....आवी अध्यात्मकळा
शीखवा जेवी छे, ने एनो प्रचार करवा जेवुं छे. खरुं सुख आ अध्यात्मकळाथी ज
प्राप्त थाय छे. अध्यात्म विद्या सिवाय बीजी लौकिक विद्याओनी किंमत धर्ममां कांई
नथी. सा विद्या या विभुक्तये–आत्माने मोक्षनुं कारण न थाय एवी विद्याने ते विद्या
कोण कहे?–विद्याहीन होय ते कहे!
जेणे अध्यात्मविद्या जाणी छे एवा ज्ञानीने मिश्रव्यवहार कह्यो, एटले शुद्धता ने
अशुद्धता बंने एक साथे तेने छे, पण तेथी कांई ते शुद्धता ने अशुद्धता एकबीजामां
भळी जतां नथी. जे शुद्धता छे ते कांई अशुद्धतारूप थई जती नथी, ने जे अशुद्धता
(रागादि) छे ते कांई शुद्धतारूप थई जती नथी. एकसाथे होवा छतां बंनेनी जुदी जुदी
धारा छे. आ रीते ‘मिश्र’ ए बंनेनुं जुदापणुं बतावे छे, एकपणुं नहि. तेमांथी जे
शुद्धता छे तेना वडे धर्मी जीव मोक्षमार्गने साधे छे.
वस्त्र अने शरीर शरीर अने आत्मा
भेदज्ञान माटे आ द्रष्टांत छे
आपने आ चित्रोमां समजाय छे कांई!
वांचवाथी बराबर समजाशे.
–अने आ सिद्धान्त छे.
–नहितर आवता अंकमां गुरुदेवनुं प्रवचन