: चैत्र : २४९२ आत्मधर्म : २७ :
“तो शुं सम्यग्द्रष्टि अध्यात्मना ज विचारमां रहेता हशे? शुं बंधपध्धत्तिना
विचार ज तेमने आवता नहि होय?” एम कोईने प्रश्न ऊठे तो तेनुं समाधान करतां
कहे छे के–
ज्यारे ज्ञाता कदाचित बंधपध्धतिनो विचार करे त्यारे ते जाणे के आ बंधपद्धतिथी
मारुं द्रव्य अनादिकाळथी बंधरूप चाल्युं आव्युं छे; हवे ए पध्धतिनो मोह तोडीने वर्त.
आ पध्धतिनो राग पूर्वनी जेम हे नर! तुं शा माटे करे छे?–आम क्षणमात्र पण
बंधपध्धतिने विषे ते मग्न थाय नहि. ते ज्ञाता पोतानुं स्वरूप विचारे, अनुभवे, ध्यावे
गावे, श्रवण करे, तथा नवधाभक्ति, तप–क्रिया ए पोताना शुध्धस्वरूपनी सन्मुख थईने
करे,–ए ज्ञातानो आचार छे. एनुं ज नाम मिश्रव्यवहार छे.”
जुओ, आ साधक जीवनो व्यवहार ने एनी विचारश्रेणी! एने स्वभावनो
केटलो रंग छे! वारंवार एनो ज विचार, एनुं ज मनन, एना ज ध्यान–अनुभवनो
अभ्यास, एनां ज गुणगान ने एनुं श्रवण, सर्व प्रकारे एनी ज भक्ति; जे कांई
क्रियामां प्रवर्ते छे तेमां सर्वत्र शुध्धस्वरूपनी सन्मुखता मुख्य छे. एना विचारमां पण
स्वरूपना विचारनी मुख्यता छे, तेथी कह्युं के “ज्ञाता” कदाचित’ बंधपद्धत्तिनो विचार
करे”....त्यारे पण तेनाथी छूटवाना ज विचार करे छे. अज्ञानी तो बधुंय रागनी
सन्मुखताथी करे छे, शुद्धस्वरूपनी सन्मुखता तेने नथी. ते कर्मबंधन वगेरेना विचार
करे तो तेमां ज मग्न थई जाय छे ने अध्यात्म तो एककोर रही जाय छे. अरे भाई
एवी बंधपद्धत्तिमां तो अनादिथी तुं वर्ती ज रह्यो छे.....हवे तो एनो मोह छोड.
अनादिथी ए पद्धत्तिमां तारुं जराय हित न थयुं, माटे एनो मोह तोडीने हवे तो
अध्यात्मपद्धति प्रगट कर. ज्ञानीए ते तेनो मोह तोडयो ज छे ने अध्यात्मपद्धति करी
छे, पण हजी रागनी कंईक परंपरा बाकी छे तेने अध्यात्मनी उग्रता वडे छेदवा मांगे छे.
एटले रागनी पद्धत्तिमां ते एकक्षण पण मग्न थतो नथी.–जुओ, आ मोक्षना साधकनी
दशा! तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ’...शुद्धआत्मारूप समयसारनी ज्यां रुचि
थई त्यां परभावनी रुचि रहे नहि; अरे, जगत आखानी रुचि छूटी जाय. जेने
अंशमात्र पण रागनी रुचि रहे तेना परिणाम चैतन्य तरफ वळी शके नहि, ने
मोक्षमार्गने ते साधी शके नहि.
रागनी रुचि छोडीने धर्मी जीव चैतन्यना प्रेममां एवो मग्न छे के वारंवार तेनुं ज
स्वरूप विचारे छे, उपयोगने फरीफरी आत्मा तरफ वाळे छे, क््यारेक निर्विकल्प अनुभव
करे छे, एकाग्रताथी एने ध्यावे छे. ‘चेतनरूप अनुप अमूरत.....सिद्धसमान सदा पद
मेरो’–एम सिद्ध जेवा निजस्वरूपनो अनुभव करे छे; एनी वात सांभळतां पण ते
उत्साहित थाय छे. एनां गुणगान ने महिमा करतां ते उल्लसित थाय छे. अहा, मारी