Atmadharma magazine - Ank 271
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : वैशाख : २४९२
(१०३) प्रश्न:– जीव केवळज्ञानरूपे परिणमे छे त्यारे कोने कारणरूपे ग्रहीने परिणमे छे?
उत्तर:– पोताना अनादिअनंत अहेतुक असाधारण ज्ञानस्वभावने ज कारणपणे
ग्रहवाथी तुरत ज जीव केवळज्ञानरूपे परिणमे छे. (प्रवचनसार गा. २१
टीका)
बधाय परद्रव्यनी अपेक्षा राख्या वगर एक आत्मस्वभावने ज कारणपणे
ग्रहीने जीव केवळज्ञानरूपे परिणमे छे. (जुओ, प्रव. गा. प८)
आत्मा स्वयमेव छ कारणरूप थईने केवळज्ञानरूप परिणमे छे, अने परनी साथे
तेने कारकपणानो संबंध नथी, तेनुं वर्णन प्रव. गा. १६मां छे.
(१०४) प्रश्न:– नियमथी चोक्कसपणे मुमुक्षुने शुं कर्तव्य छे?
उत्तर:– शुद्धरत्नत्रयरूप कार्य ते नियमथी मुमुक्षुनुं कर्तव्य छे. केमके एना वडे
नियमथी मोक्ष सधाय छे, ने एना वगर कदी मोक्ष सधातो नथी; माटे
ते मुमुक्षुनुं नियमथी कर्तव्य छे.
णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदंसणचरितं।
“ जे नियम कर्तव्यथी एवा रत्नत्रय ते नियम छे.”
(नियमसार गा. ३)
(१०प) प्रश्न:– नवमी ग्रैवेयकमां असंख्य जीवो छे, तेमां सम्यग्द्रष्टि झाझा हशे के
मिथ्याद्रष्टि?
उत्तर:– नवमी ग्रैवेयकमां सम्यग्द्रष्टि जीवो झाझा छे ने मिथ्याद्रष्टि थोडा छे.
(१०६) प्रश्न:– अनादिना अधर्मीजीवने कया भाववडे धर्मनी शरूआत थाय छे.
उत्तर:– सौथी पहेलां उपशमभाव वडे धर्मनी शरूआत थाय छे.
(१०७) प्रश्न:– धर्मनी पूर्णता कया भावे थाय?
उत्तर:– क्षायिकभावे धर्मनी पूर्णता थाय छे.