: जेठ : २४९२ आत्मधर्म : १३ :
* गतिमां जेवुं धर्मास्तिकाय निमित्त, तेवुं ज सम्यग्ज्ञानमां गुरु निमित्त,–आम
कहीने उपादान–निमित्तनी स्वतंत्रता बतावी छे. भाई, स्वत: अज्ञानी जीवने
बीजा कोई वडे ज्ञानी करी शकतो नथी, ने स्वत; ज्ञानी जीवने जगतमां बीजो
कोई अज्ञानी करी शकतो नथी, जीव पोते पोतानी योग्यतानाबळथी ज ज्ञानी के
अज्ञानी थाय छे. तेमां बीजा तो मात्र तटस्थ निमित्त छे.
* पण, जेम गतिवान वस्तुने धर्मास्तिकाय ज निमित्त होय, विरुद्ध न होय, तेम
मोक्षसुखरूप परिणमनारे ज्ञानीधर्मात्मागुरु प्रत्ये विनय–भक्ति–बहुमान होय,
तेवुं ज निमित्त तेने होय, विरुद्ध निमित्त न होय. छतां निमित्तनी आधीनता
नथी. जेम गति वखते निमित्तरूपे धर्मास्तिकाय होय ज छे, कांई तेने बोलाववा
जवुं नथी पडतुं के ‘मारे गति करवी छे माटे तुं निमित्त थवा आव.’ तेम
मोक्षसुखनो अभिलाषी जीव पोतानी योग्यतावडे प्रयत्नपूर्वक ज्यारे
मोक्षमार्गमां गमन करे छे त्यारे धर्मात्मागुरुओनो ईष्ट उपदेश तेने निमित्तरूपे
होय छे. पण तेने शोधवा माटे रोकावुं नथी पडतुं. उपादान–निमित्तनी संधि
सहजपणे मळी ज जाय छे. माटे हे जीव! तुं जागीने तारा सुखनो उद्यम कर,–
एवो ईष्ट उपदेश छे.
* प्रश्न:– योग्यताथी ज कार्य थाय छे ने बीजो तेमां कांई करतो नथी तो शुं
निमित्तनुं निराकरण थई गयुं? निषेध थई गयो?
तेना उत्तरमां कहे छे के प्रकृत कार्य थवामां वस्तुनी योग्यता ज कार्यकारी छे, त्यां
बीजा गुरु के शत्रु–ते तो बाह्य निमित्तमात्र छे; धर्मास्तिकाय जेम गतिमां
उदासीन निमित्त छे, तेम बीजा पदार्थो मात्र निमित्त छे. आथी निमित्तनो
निषेध नथी थई जतो, पण वस्तुस्थिति जेम छे तेम रहे छे. निमित्तपणे निमित्त
होवा छतां प्रकृत कार्यमां (–हित, अहित वगेरेमां) ते धर्मास्तिकायवत्
अकिंचित्कर छे. जेम गतिमां धर्मास्तिकाय निमित्त होवा छतां ते अकिंचित्कर छे,
तेम बधाय निमित्तो अकिंचित्कर छे. हितमां गुरु निमित्त, के अहितमां शत्रु
निमित्त, ते बंने निमित्तो अकिंचित्कर छे, जीवोने हित–अहितरूप प्रवृत्ति
पोतानी ज योग्यताना बळे थाय छे. आवी स्वतंत्रतानो उपदेश ते ज ईष्ट
उपदेश छे; हित अहितमां जीवनी पराधीनता बतावे तो ते उपदेश ईष्ट नथी,
सत्य नथी, हितकर नथी.
(ईष्टोपदेश गा. ३४–३प)